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शनिवार, 29 अगस्त 2015

अबंध


सबसे पहले तुम व्यक्ति हो

सबसे पहले
तुम व्यक्ति हो,
तुम मानवता हो,
बाद में हो तुम और कुछ,
जैसे हैं सभी.
तुम्हें नहीं जरूरत रक्षा की
या रक्षकों की.
तुम हो ही नहीं कमज़ोर.
तुम्हें सिर्फ़ ऐसा बताया गया है.
यह एक षड्यंत्र है
तुम्हें सरपरस्ती में रखने के लिए,
तुम्हें तुम्हारी मानवीयता से वंचित करने के लिए.
वे तुम्हें हर कुछ के रूप में रखना चाहते हैं,
सिवाय उसके जो तुम हो,
एक व्यक्ति, एक मानव.
तुम भी हो वही गीता वाली आत्मा,
जिसका कुछ नहीं हो सकता.
शरीर संरचना भी अलग नहीं,
यह है मात्र परस्पर पूरकता.
कलंक से इसका कोई सम्बन्ध नहीं.
समझो,
वैसा कुछ भी नहीं है,
जैसा तुम्हें महसूस होता है.
ये बनाए गए साचें हैं सिर्फ़.  
तुम फोड़ सकती हो सारे  साचों  को.
प्रार्थना है तुमसे.
मत बने रहो तुम रणक्षेत्र.
उठो मिट्टी से.
बनो तुम अग्रिम योद्धा.
अनीति-अन्याय के विरूद्ध
चल रहा आदिम संघर्ष
कर रहा है इंतजार तुम्हारा
युगों से.

नीरज कुमार झा

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

Hegemony




When hunger stalks a large number, fear dominates the psyche of the sensible and hatred engulfs the intellect of the very best, it's time for demagogues, messiahs and autocrats. At the end they shall have their sway and spoils and relish their whims and fancies and you will be more miserable than ever witnessing the travesty of your own volition, but without realising.

Niraj Kumar Jha

Capitalism

Substantive freedom manifests itself as capitalism. Capitalism translates into democracy in the realm of politics. In Marxian terminology, capitalism is the base and democracy is the superstructure of freedom edifice. 
                                                             
                                                                              - Niraj Kumar Jha

बुधवार, 5 अगस्त 2015

शिक्षा में स्वायत्तता; स्थापना के उपक्रम

शिक्षा में स्वायत्तता की अभीष्टता स्वयंसिद्ध है। ज्ञान सृजन, संग्रहण और प्रसार का बंधन मुक्त होना ही मूलतया स्वतंत्रता की स्थिति और इसकी निरंतरता की शर्त है।   स्वायत्त ज्ञान विकास का भी हेतु है। ज्ञान के सतत् सृजन तथा आदान-प्रदान से ही समाज आगे बढ़ता है। धर्मसुधार आंदोलन तथा पुनर्जागरण के दौर में यूरोप में उत्पन्न वैचारिक क्रांति ही यूरोप को सभ्यता के शिखर पर ले गयी। समाज में आर्थिक उन्नति, सामाजिक सौहार्द्र तथा सांस्कृतिक उन्नयन के लिए समाज  में ज्ञान की  प्रधानता आवश्यक है।  वैश्विक स्तर पर भी शांति और सहयोग ज्ञान की संप्रभुता के द्वारा ही संभव  है। हालांकि ज्ञान का स्वरूप मानव विरोधी तथा विध्वंसात्मक भी हो सकता है। उदहारण के लिए तमाम विनाशकारी शस्त्रास्त्र विज्ञान की देन हैं लेकिन यहाँ ध्यातव्य है कि  इस तरह का विज्ञान ज्ञान के ऊपर नियंत्रण के कारण  उत्पन्न होता है। स्वायत्त ज्ञान अधिकतर लोकहितकारी ही होता है। प्राचीन भारत की सम्प्रभु ज्ञानगवेषणा अखण्डित  मानववाद की आधारशिला है। इस सन्दर्भ में वसुधैव कुटुम्बकम् (1) जैसे अनेक अवधारणाओं को रखा जा सकता है। ज्ञान की संप्रभुता के लिए शिक्षा की स्वायत्तता अपरिहार्य है।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि शिक्षा में स्वायत्तता की स्थापना कैसे हो? स्वायत्तता एकबारगी  मिल भी नहीं सकती। इस कारण से ज़्यादा प्रासंगिक मुद्दा यह है कि  शिक्षा में स्वायत्तता का विस्तार कैसे हो और उपलब्ध स्वायत्तता की रक्षा कैसे हो? शिक्षा की स्वायत्तता की समस्या शासन-प्रशासन तथा बाजार के नियंत्रणकारी प्रभाव से जुड़ी है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सामान्य सुझावों के इतर कतिपय आधारभूत उपायों की चर्चा यहाँ बीजरूप में की गई है। निम्न विमर्श के आधार रूप में द्विपक्षीय मान्यता यह है कि शिक्षा की स्वायत्तता के विस्तार के उपक्रम में प्रथम दायित्व शिक्षक समुदाय का ही है और उसको इसलिए अपनी भूमिका और लक्ष्य का सही संज्ञान होना चाहिए ।


(1) वसुधैव कुटुम्बकम् का प्रथम उल्लेख महोपनिषद में है, जिसका रचनाकाल ईसा पूर्व ३००० वर्ष माना गया है. नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सामान्य सभा के अपने ऐतिहासिक सम्बोधन में वसुधैव कुटुम्बकम्  को  भारत  का दर्शन होना बताया. द  हिन्दू,  सितम्बर २८, २०१४.