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मंगलवार, 31 मई 2016

Population as a Problem

Too many still believe in India that the biggest problem of the country is its population. It's the weirdest of beliefs one can have. By implication the concerned person finds his or her own being as the country's most critical problem. And see who can be blamed for this? - his parents only. The fact is that the rise of population was never a problem and nor it is today. Now the wisdom has dawned on the people in the helm and many profusely talk of the demographic dividend India has today. Why was this then projected as the root problem causing all sorts of problem like poverty, illiteracy and prevalence of diseases etc (and for that matter to be inserted into school textbooks to make it part of people's inherent wisdom or unwisdom)? The answer is that the paternalistic regimes of the day with their socialistic totalitarian tools were forwarding this slanderous alibi in order to explain the effects of their own making, i.e. the large scale poverty and other associated issues. In other words, they were shifting the blame of their failure to the hapless parents of India. And most strangely, the people accepted this thesis. The enormity of the credulity gives me goosebumps.

- NKJ

बुधवार, 25 मई 2016

On the Prevalence of Poverty

What does the persistence of poverty in the country prove? They have ceaselessly been launching repackaged anti-poverty programmes since the very beginning and till 1991 they experimented with all the tools of socialism and despite that a very substantial number of people in India still suffer conditions which are horrendously subhuman. Persistence of poverty in a society is the sure sign of the prevalence of feudalism informing the operating philosophy and practices. Logic is very simple and faultless - if there is poverty, there must be feudalism. The mooring and make of all the policies is essentially feudal. They basically follow the policy of patron-client relationship in beguiling disguises. Leftism lifts feudalism from the grounds to the lofty heights of nation-state. In other words, leftism nationalises feudalism. Leftists are on their way out but we have to fight a long battle against leftism. We urgently need to upgrade our systems to the full fledged market economy. We must realise that there is no escape from this binary - feudal fiefdom or free market.


- Niraj Kumar Jha

सोमवार, 23 मई 2016

भारत की राष्ट्रीयता के पुरातन महोत्सव


                 वर्ष 2015 के जुलाई 14 से जुलाई 25 के दौरान  आयोजित बारह दिवसीय गोदावरी महापुष्करालु उत्सव के अवसर पर तेलांगना एवं आंध्रप्रदेश राज्यों में ग्यारह करोड़ से ज़्यादा लोगों ने दक्षिण गंगा कही जाने वाली गोदावरी नदी में स्नान किया (बिज़नेस स्टैण्डर्ड, हैदराबाद, जुलाई 26, 2015)। समान उद्देश्य से एकत्रित जनसमूह का यह एक विश्व रिकॉर्ड है। यह महापुष्करालु उत्सव हालांकि 144 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होता है लेकिन पुष्करालु या पुष्करम् या पुष्कर भारत की नदियों का उत्सव है जो भारत के बारह नदियों के तटों पर स्थित तीर्थस्थानों पर प्रत्येक बारह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होता  है। ये बारह नदियाँ  हैं – गंगा, नर्मदा, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, भीमा, ताप्ती, तुंगभद्रा, सिंधु एवं प्रणहिता । यह उत्सव बृहस्पति ग्रह  का बारह राशियों में प्रवेश के क्रम में आयोजित होता है। प्रत्येक नदी एक राशि से जुड़ी  है। राशि प्रवेश के प्रथम बारह दिन आदि कहे जाते हैं और अंतिम बारह अन्त्य, जो विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। इस अवसर पर श्रद्धालु स्नान, दान, पिण्डप्रदान  करते हैं तथा भजन, सत्संग एवं धर्मसभाओं में भाग लेते हैं।  ऐसा माना जाता है कि  देवता तथा ऋषि पुष्कर के अवसर पर नदियों में स्नान किया करते थे। पुष्कर पुरुष बृहस्पति के संग होते हैं, जो धन-धान्य की वर्षा करते हैं।  पुष्करम् उत्सव इन प्रधान नदियों के साथ ही कुछ अन्य नदियों एवं जलाशयों के तट पर  भी आयोजित होता है।
इसी तरह से वर्ष 2013 के प्रयाग के  महाकुम्भ मेले में एक ही दिन तीन करोड़ लोगों ने गंगास्नान किया था और पचपन दिन के इस महोत्सव में दस करोड़ लोगों के द्वारा स्नान किए जाने का अनुमान है। प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में प्रत्येक स्थान पर आयोजित बारह वर्ष पर आयोजित पूर्णकुम्भ और छः वर्षों पर आयोजित अर्द्धकुम्भ में इसी तरह से विशाल जनसमूह एकत्र होता है।
पुष्करम् तथा कुम्भ मेला अवश्य ही आस्था के अद्वितीय उत्सव हैं। यदि इन परम्पराओं  पर और उत्तरआधुनिकता  के इस दौर में यदि बारह दिवसीय गोदावरी महापुष्करालु महोत्सव तथा प्रयाग कुम्भ मेले में शामिल श्रद्धालुओं की संख्या देखी जाए तो यह अवश्य ही अत्यंत विस्मयकारी है। इस अवसरों पर एकत्रित महाविशाल जनसमूह की संख्या दुनियाँ के अधिकांश देशों की जनसंख्या से ज़्यादा है। इन महोत्सवों का आधार निश्चय ही आस्था है लेकिन इनके व्यापक स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत एक नवीन राष्ट्र है जिसकी उत्पत्ति अंगरेजी राज के दौर में हुई। एक सीमा तक यह तथ्य सही है कि राष्ट्र की संकल्पना राजनीतिक रूप से निर्बल हो चुकी थी। इसका स्पष्ट कारण विदेशी दासता की दीर्घकालीन निरंतरता थी लेकिन यह कहना और समझना कि भारत अंगरेजी शासन के पूर्व राष्ट्र था ही नहीं, सर्वथा भ्रामक होगा। वास्तव में भारत की राष्ट्रीयता का स्वरूप भिन्न था। भारत की राष्ट्रीयता को इन महोत्सवों तथा भारत के अनेक तीर्थों, धार्मिक ग्रंथों तथा परम्पराओं आदि से समझा जा सकता है। इन महोत्सवों का उल्लेख विशेष रूप से इसलिए किया गया है कि  इनके द्वारा स्थान विशेष पर तथा निश्चित अवधि में इस सभ्यता के विराट स्वरूप का सहज दर्शन किया जा सकता है।  वास्तव में ये महोत्सव भारत की  महान  सभ्यता की अभिव्यक्तियाँ हैं।
पाश्चात्य राष्ट्रचेतना संकुचित एवं एकांगी है। इसका आधार जातीय और भाषाई है। इसका ध्येय वर्चस्व और साधन सैन्यबल है।  भारत की राष्ट्रचेतना सभ्यतामूलक है। यह आध्यात्मिक, प्राकृतिक तथा मानवीय चेतना का समन्वय है। भारत का आध्यात्म पारलौकिक को मानवीयता में परिणत करता है और ऐहिक में परम को देखता है।  यह मानवता को अविभाज्य  मानता है और संवेदना इसकी प्रवृत्ति है।  यह प्रकृति में देवत्व के दर्शन करता है और उसके अवदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। इनके लिए नदियाँ पावन हैं, ईश्वरीय अवदान हैं।  यह सभ्यता कुटुंब के रूप में लोगों को जोड़ता है। इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस सभ्यता की मौलिक मानवीय प्रवृत्ति इसके लिए हालांकि घातक ही सिद्ध हुई । संगठित और कुटिल आक्रान्ताओं के समक्ष यह परास्त हो गया।  
अंगरेजी राज के दौर में इस सभ्यता में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। एक सभ्यता राजनैतिक रूप से भी राष्ट्र में परिणत हो गई और उस राष्ट्रीय एकता और संकल्प की परिणति एक राष्ट्र राज्य के रूप में हुई। आज यह सभ्यता अपने इतिहास से सबक ले चुकी है और यह देश महाशक्ति बनने की दौड़ में है। इस दौर में भारत की विराट संस्कृति जब इन महोत्सवों के रूप में अपना दर्श कराती है तो एक पुरातन राष्ट्र जीवन दायिनी नदियों के तट  पर जीवंत हो उठता है।                                                                                                                               --         नीरज कुमार झा 


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रविवार, 1 मई 2016

सभ्यता के शत्रु


नई दिल्ली स्थित भारत के लब्धप्रतिष्ठ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आयोजित या प्रायोजित एक कार्यक्रम के द्वारा राष्ट्रद्रोह की भावना  को फ़ैलाने की कोशिश की व्यापक  निंदा हुई है, जो नितांत स्वाभाविक है। कुछ दिनों के बाद इस इस घटना का भी पटाक्षेप हो जाएगा लेकिन जो बात सामान्यतः अनदेखी की जा रही है वह इस घटना की पृष्ठभूमि और प्रकृति है, जिनके  गहन विश्लेषण की आवश्यकता है।  

उक्त घटना वास्तव में देशव्यापी घटनाक्रम की एक कड़ी है जिसका उद्देश्य देश में अस्थिरता उत्पन्न करना है और देश की छवि को हानि पहुँचाना है। इस तरह के विवादों को  जानबूझ कर निर्मित किया जाता है जिनसे लोगों की भावनाएँ भड़के और आरोप तथा प्रत्यारोप का लम्बा दौर चले। इनसे निश्चित रूप से  समाज में वैमनस्य का वातावरण निर्मित होता  है और कलह फैलता है। जवाहरलाल नेहरू नेहरू विश्वविद्यालय की घटना भी इसी कुत्सित प्रयास का हिस्सा है। साथ ही देश के कुछ वामपंथी समूह अपने नष्ट हो चुके मायाजाल को फिर से बहाल करने की कोशिश में हैं। वे समाज के सापेक्षिक कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्गों में अपनी पैठ बनाना  चाहते हैं। हालाँकि इस तरह के गठबन्धन का प्रयास एक दिवास्वप्न ही है।  इसका कारण है कि पंथ, जाति तथा वर्ग आधारित विचारधाराओं  में मौलिक विरोधाभास हैं।     

इस घटना के पीछे की रणनीति क्या है? वैश्विक इतिहास को देखने से यह साफ़ हो जाता है कि मानवता के शत्रुओं ने सदैव फसाद और भ्रम के द्वारा ही स्वयं को स्थापित किया है। वामपंथी इस मामले में माहिर हैं। इस देश ने वामपंथ को विनाश का तांडव करने का ज़्यादा मौका तो नहीं दिया लेकिन देश इसके विघटनकारी प्रभाव से स्वयं की रक्षा भी नहीं कर पाया। यह वामपंथी विचारधारा का ही प्रभाव है कि आज़ादी के सात दशक के बाद भी भारत की लगभग एक चौथाई आबादी आज भी मानवोचित जीवन-यापन करने में अक्षम है। भारत तथा भारत के विचार से शत्रुता रखने वाले मात्र वामपंथी नहीं हैं। विदेशों के अनेक साधनसम्पन्न संगठन देश को जाति  तथा क्षेत्रीयता के आधार पर  भी तोड़ना चाहते हैं और कमज़ोर वर्गों के बीच द्रोह की भावना निर्मित करना चाहते हैं (इस तरह के अंतरराष्ट्रीय तंत्र को राजीव मल्होत्रा और अरविंदन नीलकंदन ने अपनी  पुस्तक ‘ब्रेकिंग इंडिया’ में बेनक़ाब किया है।) तीसरी, जिहादी ताकतें तो हैं ही।  

वैश्विक स्तर पर भारत अनेक संगठनों और लोगों के आँखों की किरकिरी क्यों है? वास्तव में  भारत एक अनन्य राष्ट्र है। यह राष्ट्र एक महान सभ्यता की राजनीतिक अभिव्यक्ति है। प्राचीन काल से ही इस सभ्यता का प्रभाव भारत वर्ष के भौगोलिक सीमाओं के परे अत्यन्त व्यापक रहा है। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक, निबंधकार तथा राजनयिक हु शिह (1891 – 1962) के अनुसार ‘भारत ने सीमा पार बिना एक भी सैनिक  भेजे चीन को सांस्कृतिक रूप से विजित कर उस पर बीस सदियों तक राज किया है।’ प्राचीन काल में भारत का सांस्कृतिक प्रभाव इतना व्यापक था कि दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया और चीन के विशाल भूभाग को बृहत्तर भारत कहा गया है। यह महान सभ्यता लगभग अपनी सम्पूर्णता में आधुनिक युग में राजनीतिक रूप से राष्ट्र-राज्य में परिवर्तित हो गयी है। यह तथ्य उल्लेखनीय है क्योंकि यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का उदय ईसाई सभ्यता के विखण्डन के परिणामस्वरूप हुआ है जिसका आधार जातीय तथा भाषाई है जबकि भारतीय राष्ट्र-राज्य सभ्यतामूलक है।

भारतीय राष्ट्र-राज्य सनातन धर्म जनित सभ्यता का आधुनिक रूप है, जिसका मूल तत्त्व अद्यतन अक्षुण्ण है। यह मूल तत्त्व है सर्वहित की भावना जो मानवों, चराचर तथा लोक-परलोक को अविभाज्य देखता है। उदात्तता की पराकाष्ठा प्राप्त करने के बाद भी यह सभ्यता हर तरह के विचारों का सम्मान करती रही है। सभी मत-मतान्तरों के प्रति  सम्मान  रखते हुए यह परम्परा वर्चस्व की प्रवृत्ति  से हीन है और मानव समाज को परस्पर कुटुंब मानती है। नैसर्गिकता के इस सभ्यता का मतारोपण के वादों के अनुयायियों और वर्चस्ववादियों का कोपभाजन होना स्वाभाविक है। सनातन सभ्यता सृष्टि की सभ्यता है, प्रकृति की सभ्यता है, मानवीयता की सभ्यता है।   

वैश्विक स्तर पर वर्चस्व के कामी भारत के उदय से कष्ट में हैं और इस सभ्यता को नष्ट होते देखना चाहते हैं और उनका सबसे बड़ा हथियार रहा है भारतीयों को विभाजित कर आपस में लड़ाना, जो दुर्भाग्य से अक्सर कारगर रहता है। इस विषम परिस्थिति में भारत को अपनी सभ्यता की उज्जवल परम्परा को त्यागने की आवश्यकता नहीं है बल्कि मानवहित  में उसको और सबल करने की जरूरत है। साथ ही हालाँकि इससे भी जरूरी है कि भारत अपनी  रक्षा के लिए रणनीतिक सोच विकसित करे। भारतवासियों को  एकजुट होकर देश को सशक्त, सम्पन्न  और प्रभावशाली बनाना है। हमें कभी नहीं भूलना है कि  हमारा दायित्व वैश्विक है और उस अनुरूप हमें क्षमता प्राप्त करनी है। ऐसा तो बिलकुल नहीं होना चाहिए कि कुछ दुर्जन कुचक्र चलाकर हमें बार-बार दिग्भ्रमित करते रहें। हमें इस तथ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए कि गुप्तवंश के शासन काल के बाद से इस देश के निवासी सम्मान और सम्पन्नता के जीवन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

समस्त देशवासियों को इस बात को समझना होगा कि स्वतंत्रता, स्वराज और सुराज का एक ही सूत्र है - वह संविधानवाद है (संविधानवाद को मैं धर्मसत्ता के रूप में परिभाषित करता हूँ)। संविधानवाद से ही स्वतंत्रता का रक्षण और संवर्द्धन सम्भव है। उपद्रव और उत्तेजना फ़ैलाने से संविधान सबल नहीं होता है बल्कि निर्बल होता है। यदि भारत एक कार्यशील जनतंत्र है तो उसकी आधारभूमि हमारी स्वतंत्रता संग्राम की विरासतें हैं। इस संग्राम में भारतीयों के तरफ़ से सभ्य संवाद को सदैव वरीयता दी गयी थी। हमें आज परस्पर विमर्श और समझ की प्रक्रियाओं को सघन बनाने की जरूरत है। हम एक बौद्धिक समाज बनकर ही अन्तरराष्ट्रीय चक्रव्यूह को तोड़ सकते हैं। अभी तमाम फसादों का एक दुष्परिणाम तो एकदम साफ़ है। आज देश में आर्थिक सुधारों की जरूरत सबसे ज़्यादा है लेकिन इन उपद्रवों की वजह से यह प्रक्रिया अपेक्षित गति को प्राप्त नहीं कर पा रही है। भारत की जय हो, यह मानवता की जय की अपरिहार्य शर्त है।  

नीरज कुमार झा
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