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बुधवार, 20 नवंबर 2024

वस्तुनिष्ठता की चुनौती

किसी भी घटित हो रही लोक परिघटना का भी अध्ययन करने से पता चलता है कि उसके होने की परते हैं और और प्रत्येक परत के एकाधिक आयाम हैं। यदि अध्येता विचारधारा चालित नहीं है अथवा उसके पास पूर्व निर्धारित निष्कर्ष नहीं है तो परिघटना को लेकर कोई निर्णयात्मक घोषणा करना लगभग असंभव है। यह तब है जब अध्येता किसी घटना का प्रत्यक्षदर्शी होता है। ऐतिहासिक परिघटनाओं को लेकर अध्ययन की वस्तुनिष्ठता की चुनौती की कल्पना की जा सकती है।
 
इस फांस का काट सामाजिक समस्याओं और चुनौतियों का संवेदनात्मक चिह्नांकन और उसके निराकरण की मानवीय योजना है। इतिहास विषय को इस संदर्भ में दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, प्रकार्यात्मक इतिहास और द्वितीय, कौतुक इतिहास। पहला इतिहास वह है जो समकालीन समाज के लिए उपयोगी है और दूसरा जो मात्र कौतूहल शांति के लिए उपयोगी है। पहला इतिहास वर्तमान से विगत की ओर जाएगा और दूसरा अपने समय में ही देखा जाएगा।
 
नीरज कुमार झा

रविवार, 17 नवंबर 2024

ज्ञान

ज्ञान की पारिभाषिक प्रकृति पारमार्थिक है। यह अहं की पुष्टि का माध्यम अथवा स्वार्थ सिद्धि का आवरण नहीं हो सकता है।
 
यह भी सत्य है कि परमार्थ स्वार्थ से अभिन्न है। सर्वहित में ही स्वहित की सर्वोत्तम उपलब्धि सम्भव है।

व्यावहारिकता मध्यममार्ग है। सबके भले के साथ अपनी भलाई का उपक्रम उचित है। इसकी सीमा है किसी को हानि पहुँचाए लाभ हेतु प्रयास। इससे निम्न कर्म समाज के विरूद्ध है और किसी के हित में नहीं है।

नीरज कुमार झा

बुधवार, 13 नवंबर 2024

The Myth of Naive Commoners

A commoner is an abstraction for the top-notch public intellectuals that hardly account for a real commoner. The prime reason for my observation is that a general feeling among professional intellectuals cutting through diverse ideological persuasions is that they feel that commoners' political and social perspectives can be manipulated. This is true to a certain extent but to regard commoners as they do have not a mind or understanding of their own is a gross misconception. Commoners effectively process all ideas thrown at them and have their worldviews quite independent of all ideologues working to influence them.

This is not to say that the common imagination is right or wrong. It may also be grossly mistaken, but for historical and sociological reasons, which one cannot help with. This is the first error on the part of general intellectualism as they can not discern that.

Another but bigger challenge is that people may not imagine and ideate functionally, the way that helps people towards the common good. That is due to the unavailability of a functional, not dysfunctional or malfunctioning, template for people to imagine properly. That is a failure of intellectualism, which the professional intellectuals fail to see.

Niraj Kumar Jha

सोमवार, 11 नवंबर 2024

संदर्भ व्हाट्सप्प हिस्ट्री बनाम ऐकडेमिक हिस्ट्री पर बहस : दोनों पक्षों से परे कि इतिहासकार आम लोगों से मुखातिब हैं या नहीं

यह तो एक उदाहरण भर है। निशाना सोशल मीडिया पर जन विमर्श है। यह सामान्य नागरिकों के सोचने, समझने और बातों के साझा करने पर आपत्ति है। मगर जो बात मुझे सही लगती है, वह है कि इतिहास क्या, कोई भी विषय जीवन से जूझते जन को न तो सीखाया जा सकता है और न ही उन्हें सीखने की जरूरत है। उनका विमर्श जिस रूप में है, वही उनका है और उनके काम का है। इतिहास को ही लें। विगत जो था, वही होगा, लेकिन किसी भी अतीत की परिघटना के विभिन्न आख्यान हैं जो विभिन्न इतिहासकारिता (मैं हिस्टोरीआग्रफी के लिए इतिहासलेखन के स्थान पर इतिहासकारिता शब्द का प्रयोग करता हूँ) के द्वारा सृजित की गयी होती हैं। इससे स्पष्ट है कि इतिहास अतीत की परिघटनाओं के विवरण और विश्लेषण की विभिन्नता मात्र है। दूसरे शब्दों में, इतिहास विचारधारात्मक उत्पाद है (यह थोड़ा ज्यादा हो गया है, बाद में मैं कभी संतुलित सामान्यीकरण करने का प्रयास करूंगा।)। हालाँकि इस संदर्भ में जो बात मैं कहना चाहता हूँ, वह है कि वस्तुनिष्ठ इतिहास उपलब्ध है, लेकिन इतिहास की किताबों में नहीं। वहाँ इतिहास को लिखा या पढ़ा नहीं जाता है बल्कि अतीत वहाँ स्वयं मुखर है, और वहीं मौजूद है अनगढ़ लेकिन विशुद्ध इतिहास। वह स्थान है लोकाचार, लोगों का आचार-व्यवहार; उनकी प्रथाएँ, भाषा (लोकोक्तियाँ और लोकगीत), अनुष्ठान, विश्वास-अंधविश्वास, भय-अपेक्षाएँ, और प्रीतियाँ-घृणाएँ। भले ही सोशल मीडिया पर प्रचलित बातें तथ्यात्मक रूप से भ्रामक या गलत हों, लेकिन उनके पीछे की भावनाएँ बिल्कुल खरी हैं। प्रचारित बातें भावनाएँ नहीं निर्मित करती हैं बल्कि गहरी भावनाएँ उन बातों को व्यापकता देती हैं।

इस बात को ध्यान रखने पर सुधी जन का रोष कम होगा और साधारण लोगों की बुद्धि को शायद कम कोसेंगे। 
यदि मेरी बात गलत है तो वे सुधीजन मेरा सुध लेते हुए मुझे शिक्षित करेंगे। कृपया।

नीरज कुमार झा

रविवार, 10 नवंबर 2024

Education and Ethics

Many advocate that ethics should be part of education. They see it as a valuable or necessary addition to the education process. They call it ethical education and its obvious implication is that moral education is a specialised and neglected stream of education.

This is a grossly mistaken perspective. Ethics is the sine qua non of education, not an addition. It is the core of education. Even imparting basic skills should not be without inculcating related values. Everything we do should be in service to others and one must do that honestly and with empathy. People are educated to be morally capable of doing things. At the same time, the claim of a fair reward for doing the service is equally moral.

A moral society is a progressive society. A decline in any society and civilization begins with moral degeneration. 

Educational institutions are meant to uphold and infuse morality in society. Their institutionalisation and working demand the utmost care. 

Niraj Kumar Jha 


मंगलवार, 5 नवंबर 2024

Moral Order

Morality is the lifeblood of the social system. The fear of divine justice upheld this order to a good extent earlier, but that is grossly weakened now.
 
Good schooling with the best human beings available as teachers is now unavoidable if we do not want all hell to break loose.
 
Morality and the rule of law strengthen each other. Effective and fair laws are essential for morality's sustainability.
 
Besides these fundamentals, social reorientation is needed to integrate people into harmonious and pleasant community life. No person should feel alienated and being aloof should not be more pleasing than being with others. People, in general, should be conscious of this need for social remaking and think and do something in that direction.
 
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 2 नवंबर 2024

Material Conditions and Human Agency

A widely prevalent misconception is that material realities condition human agency. This is true to some extent but in the most bland way. The cutting edge of human agencies is too often quite different and even opposite to what material conditions may dictate. Instincts and ideologies which drive human action more often than not defy the logic of the material. 

Theologies and ideologies prove the point by their continuation through the ages and spread across geographies beyond their original ones. 

The present-day world needs to cooperate unavoidably to tackle such grave issues like climate change and to run affairs of a more integrated world but it is conflicts, military and others, which overwhelm international relations. The world needs to rethink values which fashion human thinking and actions. Ideas are crucial and more effective agents of change. Let us ideate. 

Niraj Kumar Jha