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मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

बहुत सारे हैं,

बहुत सारे हैं,
डाल को सही जगह बैठकर काटते हैं.
गिरते हैं,
पूँजीवाद को कारण बताते हैं.

नीरज कुमार झा

रविवार, 26 अप्रैल 2020

World Order: The Covid Fatality

We have now two new landmarks to identify the 20th century: 1918 and 2019, the years of the begining of two great pandemics. The world, which we saw to emerge after the First War, take its form after the Second War, run its course through the Cold War, retire in 1991 with the collapse of the Soviet Union, finally ended in 2019 with the outbreatk of the Corona Pandemic. Now we are between the end of the old world and the emergence of the new world. Among the early fatalities of the Corona Pandemic is the World Order. 

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

आइडीआलजी बनाम विचारधारा

सामान्यतः आंग्लभाषा के शब्द आइडीआलजी के लिए हिन्दी में विचारधारा शब्द का प्रयोग किया जाता है. यह नितांत अनुचित है. विचारधारा विचारों का मुक्त प्रवाह है जो भारतीय परम्परा में देखी जा सकती है. आइडीआलजी की अवधारणा के प्रभाव के आधार पर इस शब्द का अनुवाद विचार-भंवर या वैचारिकी-पिंजर हो सकता है, अन्य कदापि नहीं. वास्तव में आइडीआलजी बुद्धि-विरोध की योजना है. यह कुत्सित प्रवृत्ति का विन्यास है जिसका उद्देश्य निष्ठावान और परिश्रमी जनों का दोहन है. इसकी प्रकृति संक्रामक और आनुवंशिक होती है. यह जनमानस के दुर्बल अंशों को लक्ष्य बनाकर उसके सोच को अधीन कर लेती है. यह लोगों के सम्मुख एक लुभावन गल्प प्रस्तुत करती है जिसमें उन्हें अपना उद्धार दिखता है. गल्पों में से कुछ मृत्यु से पूर्व की और कुछ उसके बाद की स्थिति से सम्बंधित होते हैं. जॉर्ज ओरवेल की पुस्तिका इस मानवीय त्रासदी का सटीक चित्रण है. यह विचारवान व्यक्तियों का दायित्व है कि वह भिन्न आइडीआलजी के भंवरजाल को तोड़े. जैसे वायरस को मात्र विज्ञान के बल पर लड़ा जा सकता है वैसे ही विचारधारा का प्रतिकार मात्र वैज्ञानिक सोच के आधार पर किया जा सकता है. यहाँ इस तथ्य को रखना समीचीन है कि विज्ञान के लिए सबसे चुनौती अज्ञान नहीं वरन छद्मविज्ञान है.

नीरज कुमार झा

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

Democratisation of Discourse

On the social media, most of the people demonstrate their belief of embodying the perfect knowledge and this unnerve many of those who see themselves as having the natural claim or credentials to speak for all and sundry. What appears uncharitable to most of the people is that their worth is not recognised by their fellows. Such a feeling comes from their cognitive makeup, which sees the world as hierarchical, and in a space where there is no force applied to place people, they place themselves at the top of the world in wisdom or sagacity. For instance, in their imagination, many subalterns often think that they could do better than generals. One needs, in fact, to get rid of this hurt sentimentality. The point is to respect others and argue one’s case with humility. Only by doing so, we can enrich public life, benefiting one and all. We must accept, rather welcome, the democratisation of discourse. We must celebrate democracy. We must cheer our fellows. 

Niraj Kumar Jha