पागल न हों
इसलिये हम सहज रहना चाहते हैं
सहज रहने की यह हमारी कोशिश भी
पागलपन के हद तक जा चुकी है
निरर्थक में अर्थ ढूढ़ना और
सार्थक को समझने से बचना
हमारी प्रवृत्ति बन चुकी है
संवेदना से दूर हो चुके हम इतने कि
सुपची संस्कृति हमें स्वाभाविक लगती है
और मत्स्य न्याय को नियति हमने स्वीकारी है
फ़सानों और तमाशों को दी हमने अहमियत ऐसी
कि वे असलियत का मुँह चिढ़ा रहे हैं
हमने किया है कुछ ऐसा कि
नक़ल की दुनियाँ में चल रहा हमेशा जलसा है
और इठला रहे लोग नक़ली हैं
असल की दुनिया के लोग हम असली
छायाओं की दुनियाँ में अपने को तलाश रहे हैं
अपने खोखले व्यक्तित्व और निरंक कृतित्व का मुखौटा साथ रखते हैं
रजतपट पर चलते चित्रों को उस मुखौटे को पहना कर खुश होते हैं
और अपनी मानवीयता की कब्र पर उगे अहम् के कटीले झाड़ को सींचते हैं
कल्पना भी उधार की
ऐसे में क्या जीवन की कोई नई कहानी गढ़ी जा सकती है
स्थिरजन्मा बौद्धिकता के सड़ते शरीरों के बीच
क्या किसी नई सभ्यता की बातें की जा सकती हैं
- नीरज कुमार झा
bahut achcha likha hei................
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