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शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बिना सिर-पैर की कुछ बेतरतीब पंक्तियाँ


(१)

कब्ज़ा हो चुका हर तरफ़  तमाशाइयों का 
तमाशा बना दिया उन्होंने पूरी दुनियाँ का 

(२)

हम ही तमाशा 
हम ही तमाशबीन 
खुद पर ताली बजा रहे हैं  
मंद-मंद मुस्कुराते तमाशाई 
सिक्के बीन रहे हैं 

(३)

अंधेरे के साये में जीने वाले 
उजियारे में उड़ान भरने लगे हैं 
अंधेरगर्दी मची है ऐसी कि चमगादड़ और उल्लू 
दिन में मँडराने लगे हैं 

(४)

बेशर्म व्यभिचारी और बेरहम हत्यारे 
इज्ज़त और ओहदे से नवाजे जा रहे हैं 
शराफत की शर्मिंदगी का बोझ ढोते
हम मुँह छिपाए फिरते हैं 

(५)

खिलवाड़ी  और नटुए भगवान कहे जा रहे हैं 
अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को विवश हो  रहे हैं 

 (६) 

आजकल हम शरबत बहुत पीने लगे हैं 
खून मेरा मीठा नहीं 
शिकायत जोंकों की दूर कर रहे हैं 

(७)

चमड़ी तुम्हारी सख्त
डंक मारकर रेंगने वाले महोदय चिल्लाते हैं 
जहर का कहर झेल रहा मैं कराहता हूँ 
साँपजी आप सही हैं

(८)

पेट में भोजन, तन पर कपड़ा, रहने का ठौर और लुढ़काने को पहिया
हम करें परवाह क्यों कि जमीर हमारा पराया हो गया 

(९)


ख़ुद के बुने जाले में फंसे हैं 
अपना ही हाथ-पैर चबा रहे हैं 
पेट भरने से संतुष्ट भी हैं 
दर्द से बिलबिला भी रहे हैं 
यह अनोखी नस्ल
मकड़ों की नहीं 
हम आदमियों में ही 
पाई जाती है 

(१०)


शहर दर शहर खाक छान रहा कि कहीं पनाह मिले
पनाह कहाँ मुकद्दर में कि शहर के शहर बेपनाह मिले

(११)

चोर उचक्के हुए महंत 
बेपढ़ पढ़े बने जमूरे 
समझदार सर धुने
उठाईगिरे  हुए सिरमौर 
होते आज अगर 
रो रो होते बेहाल कबीर 
(१२)

महफ़िल नहीं यह
वाह वाह कहा और बढ़ गए
सुना है तो कहो भी
बातें बढ़े तो सही

(१३)

ऊँचे झरोखे से झलक दिखा जाते हो
हम भी जयकारे कर रह जाते हैं
यह तो कोई बात नहीं हुई
मेरी भी सुनो, कुछ बातें करो तो कोई बात है

(१४)


दिल की बात कहने का मन नहीं करता
खुद से भी बातें करना अच्छा नहीं लगता
बेमुरव्वत खुदगर्ज़ी और बेइंतहा फरेब के  बीच
कविता लिखना वाजिब नहीं लगता

(१५)

जंज़ीरों से क्यों है तुम्हें मुहब्बत 
रूकावटों पर तुम क्यों करते इतनी मेहनत
वर्जनाओं की कारा में
उच्छृंखलता के सेंध ही सेंध खुदे हैं
हवाओं को बह लेने दो
लोगों को जी लेने दो


- नीरज कुमार झा 


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

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  2. पेट में भोजन, तन पर कपड़ा, रहने का ठौर और लुढ़काने को पहिया
    हम करें परवाह क्यों कि जमीर हमारा पराया हो गया
    बहुत खूब लिखी है... आम जन के दर्द को रेखांकित करती हुई कविता है।

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