वर्ष 2015 के जुलाई 14 से जुलाई 25 के दौरान आयोजित बारह दिवसीय गोदावरी
महापुष्करालु उत्सव के अवसर पर तेलांगना एवं आंध्रप्रदेश राज्यों में ग्यारह करोड़
से ज़्यादा लोगों ने दक्षिण गंगा कही जाने वाली गोदावरी नदी में स्नान किया (बिज़नेस
स्टैण्डर्ड, हैदराबाद, जुलाई 26, 2015)। समान उद्देश्य से एकत्रित जनसमूह का
यह एक विश्व रिकॉर्ड है। यह महापुष्करालु उत्सव हालांकि 144 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होता है लेकिन पुष्करालु या पुष्करम्
या पुष्कर भारत की नदियों का उत्सव है जो भारत के बारह नदियों के तटों पर स्थित
तीर्थस्थानों पर प्रत्येक बारह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होता है। ये बारह नदियाँ हैं – गंगा, नर्मदा, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, भीमा, ताप्ती, तुंगभद्रा, सिंधु एवं प्रणहिता । यह उत्सव बृहस्पति ग्रह का बारह राशियों में प्रवेश के क्रम में
आयोजित होता है। प्रत्येक नदी एक राशि से जुड़ी है। राशि प्रवेश के प्रथम बारह दिन आदि
कहे जाते हैं और अंतिम बारह अन्त्य, जो विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। इस अवसर पर श्रद्धालु स्नान, दान, पिण्डप्रदान करते हैं
तथा भजन, सत्संग एवं
धर्मसभाओं में भाग लेते हैं। ऐसा माना
जाता है कि देवता तथा
ऋषि पुष्कर के अवसर पर नदियों में स्नान किया करते थे। पुष्कर पुरुष बृहस्पति के
संग होते हैं, जो
धन-धान्य की वर्षा करते हैं। पुष्करम्
उत्सव इन प्रधान नदियों के साथ ही कुछ अन्य नदियों एवं जलाशयों के तट पर भी आयोजित होता है।
इसी तरह से वर्ष 2013 के प्रयाग के महाकुम्भ मेले में एक ही दिन तीन करोड़
लोगों ने गंगास्नान किया था और पचपन दिन के इस महोत्सव में दस करोड़ लोगों के
द्वारा स्नान किए जाने का अनुमान है। प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और
नासिक में प्रत्येक स्थान पर आयोजित बारह वर्ष पर आयोजित पूर्णकुम्भ और छः वर्षों
पर आयोजित अर्द्धकुम्भ में इसी तरह से विशाल जनसमूह एकत्र होता है।
पुष्करम् तथा कुम्भ मेला अवश्य ही आस्था
के अद्वितीय उत्सव हैं। यदि इन परम्पराओं पर और उत्तरआधुनिकता के इस दौर में यदि बारह दिवसीय गोदावरी
महापुष्करालु महोत्सव तथा प्रयाग कुम्भ मेले में शामिल श्रद्धालुओं की संख्या देखी
जाए तो यह अवश्य ही अत्यंत विस्मयकारी है। इस अवसरों पर एकत्रित महाविशाल जनसमूह
की संख्या दुनियाँ के अधिकांश देशों की जनसंख्या से ज़्यादा है। इन महोत्सवों का
आधार निश्चय ही आस्था है लेकिन इनके व्यापक स्वरूप को समझने की आवश्यकता है।
सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत एक नवीन राष्ट्र है जिसकी उत्पत्ति अंगरेजी राज
के दौर में हुई। एक सीमा तक यह तथ्य सही है कि राष्ट्र की संकल्पना राजनीतिक रूप
से निर्बल हो चुकी थी। इसका स्पष्ट कारण विदेशी दासता की दीर्घकालीन निरंतरता थी
लेकिन यह कहना और समझना कि भारत अंगरेजी शासन के पूर्व राष्ट्र था ही नहीं, सर्वथा भ्रामक होगा। वास्तव में भारत की
राष्ट्रीयता का स्वरूप भिन्न था। भारत की राष्ट्रीयता को इन महोत्सवों तथा भारत के
अनेक तीर्थों, धार्मिक
ग्रंथों तथा परम्पराओं आदि से समझा जा सकता है। इन महोत्सवों का उल्लेख विशेष रूप
से इसलिए किया गया है कि इनके
द्वारा स्थान विशेष पर तथा निश्चित अवधि में इस सभ्यता के विराट स्वरूप का सहज
दर्शन किया जा सकता है। वास्तव में
ये महोत्सव भारत की महान सभ्यता की अभिव्यक्तियाँ हैं।
पाश्चात्य राष्ट्रचेतना संकुचित एवं
एकांगी है। इसका आधार जातीय और भाषाई है। इसका ध्येय वर्चस्व और साधन सैन्यबल है। भारत की राष्ट्रचेतना सभ्यतामूलक है। यह
आध्यात्मिक, प्राकृतिक
तथा मानवीय चेतना का समन्वय है। भारत का आध्यात्म पारलौकिक को मानवीयता में परिणत
करता है और ऐहिक में परम को देखता है। यह मानवता को अविभाज्य मानता है और संवेदना इसकी प्रवृत्ति है। यह प्रकृति में देवत्व के दर्शन करता है
और उसके अवदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। इनके लिए नदियाँ पावन हैं, ईश्वरीय अवदान हैं। यह सभ्यता कुटुंब के रूप में लोगों को
जोड़ता है। इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस सभ्यता की मौलिक मानवीय प्रवृत्ति इसके
लिए हालांकि घातक ही सिद्ध हुई । संगठित और कुटिल आक्रान्ताओं के समक्ष यह परास्त
हो गया।
अंगरेजी राज के दौर में इस सभ्यता में
राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। एक सभ्यता राजनैतिक रूप से भी राष्ट्र में परिणत हो
गई और उस राष्ट्रीय एकता और संकल्प की परिणति एक राष्ट्र राज्य के रूप में हुई। आज
यह सभ्यता अपने इतिहास से सबक ले चुकी है और यह देश महाशक्ति बनने की दौड़ में है।
इस दौर में भारत की विराट संस्कृति जब इन महोत्सवों के रूप में अपना दर्श कराती है
तो एक पुरातन राष्ट्र जीवन दायिनी नदियों के तट पर जीवंत हो उठता है। -- नीरज कुमार झा
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