समकालीन अन्तरराष्ट्रीय मंदी से भारतीय वामपंथी भी अच्छे-खासे उत्साहित हैं। उन्हें लगता है कि वर्ग संघर्ष, श्रमिक संघवाद और साम्यवाद के दिन फिरने वाले हैं। वास्तव में यह एक भारी भ्रम है। विघटन का यह इंद्रजाल अब टूट चुका है और त्रासदी के इस इतिहास की पुनरावृत्ति संभव नहीं है। कुछ व्यावहारिक वामपंथी इस तथ्य को जानते हैं और अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए जातिवाद का सहारा ले रहे हैं।
पूँजीवादी प्रणाली की यह प्रकृति है कि इसमें आवर्ती नवीनीकरण होते रहते हैं। मंदी के दौर में पूँजीवादी व्यवस्था सृजनात्मक विध्वंस की प्रक्रिया से होकर गुजरती है और हर बार यह प्रणाली अपने बेहतर स्वरूप में सामने आती है।
इस बार की मंदी हालांकि कुछ ज़्यादा ही खिंच रही है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था स्वयं युगान्तकारी चरण से गुजर रही है। नवीन सूचना प्रौद्योगिकी, रोबोटिक्स, ऑटोमेशन, ऊर्जा के नवीन स्रोत आदि से एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ से गैर-पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की बढ़त के कारण विश्व अर्थव्यवस्था इस समय संक्रमण के अत्यन्त जटिल दौर में है और इस वजह से पूँजीवाद इस चरण में स्थिरता प्राप्त करने में समय ले रहा है।
समकालीन पूँजीवादी संकट का हालांकि ज़्यादा महत्वपूर्ण कारण दूसरा है, और जिसे रेखांकित करना इस लघुलेख का उद्देश्य है। यह कारण भारत में उदारीकरण, निजीकरण और खगोलीकरण की अपेक्षाकृत धीमी गति है। वास्तव में, विश्व की विपत्ति से मुक्ति भारत की संपत्ति पर निर्भर करती है। एक सम्पन्न भारत ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने के लिए नई धुरी दे सकता है। भारत के समक्ष यह अवसर उपस्थित हुआ है कि वह पुनः विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र बन सके। विश्व बाज़ार हालांकि बहुत समय तक इंतज़ार नहीं करेगा और यदि भारत इसकी धुरी नहीं बन पाता है तो यह कोई और धुरी तलाश लेगा। नुकसान सिर्फ़ भारत के आम नागरिकों का होगा।
नीरज कुमार झा
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