कभी-कभी गुम हो जाता है आकाश
और गायब हो जाती है धरती;
न ही खाली रहता है
और न ही भरा हुआ।
सृष्टि और शून्य,
दोनों ही हो जाते हैं विलुप्त
और अप्रकट प्रकट होता है अशून्य ।
आकार और निराकार से पार का -
यह अशून्य,
खड़ा हो जाता है यदाकदा
हमारी चेतना के द्वार।
नीरज कुमार झा
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