गुलाम मैं भी हूँ
गुलाम तुम भी हो
मजे में हो तुम
लेकिन मैं हूँ बेचैन
जिसका तुम्हें भान भी नहीं
उसके मारे मैं हूँ परेशान
ऐसा क्यों है
शायद तुम पड़े हो जन्म से ही
ऐसी कालकोठरी में
जिसमें कोई रोशनदान भी नहीं
मैं जहाँ हूँ नज़रबंद
वहाँ खुली खिड़कियाँ तो हैं ही सही
रोशनी तो कभी न कभी तुमने भी देखी होगी
लेकिन तुमने झूठला दिया होगा देखे का
बहला लिया होगा अपने-आप को
समझ कर उसे छलावा
दिमाग पर जोर डालना
शायद नहीं तुम्हारी फितरत
लेकिन मेरे मन का एक कोना है
जिसे नहीं गवारा
मेरा गुलाम होना
- नीरज कुमार झा
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