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सोमवार, 5 सितंबर 2011

रामचरितमानस : भारतीय जनतान्त्रिक चेतना का आधार स्तम्भ


डा. नीरज कुमार झा


भारतीय जनतंत्र वैश्विक राजशास्त्रियों के लिये विस्मय का विषय है. भारत का आकार उपमहाद्वीपीय है तथा यहाँ की सांस्कृतिक विभिन्नताएँ अपार हैं. औपनिवेशिक शासक भारतीय राष्ट्रवाद को निरा गल्प मानते थे. उदाहरण के लिए पंजाब, बंगाल, मद्रास या गुजरात आदि प्रदेशों के मध्य भिन्नताएँ इतनी ज़्यादा थीं कि वे भारत को किसी सूरत में राष्ट्र मानने को तैयार नहीं थे. स्वंत्रतता के समय भारत की अतिदरिद्रता तथा विभाजन के कारण व्याप्त अराजकता के माहौल में भारत में जनतंत्र की बात तो दूर, भारत की भौगोलिक अखण्डता भी संदिग्ध मानी जा रही थी. आज आज़ादी के चौंसठ साल बाद न सिर्फ़ भारत की अखण्डता यथावत है बल्कि भारत का जनतंत्र निरंतर नयी बुलंदियों को छू रहा है. जनतंत्र की भारत में ऐसी अप्रत्याशित सफलता को पाश्चात्य राजनीतिक संस्थाओं की प्रभावशीलता के रूप में देखना भारी भूल होगी. आज भी दुनियाँ की  आधी आबादी गैरजनतांत्रिक हुकुमतों के अधीन है. पाश्चात्य राजनीतिक प्रणालियाँ विश्व के अन्य क्षेत्रों में जनतंत्र को स्थापित करने में अभी तक कारगर नहीं हुई हैं. भारतीय  उपमहाद्वीप पर ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद की सामूहिक विरासत के बावजूद (नेपाल को छोड़कर) भारत के पड़ोसी देशों में जनतंत्र की स्थिरता कायम नहीं हुई है. वास्तव में भारतीय राष्ट्र व जनतंत्र की पृथक पृष्ठभूमि है. भारत की औपनिवेशिक दासता के कालखंड ने अवश्य ही भारतीय एकता की स्थापना और जनतंत्र के उदय में उत्प्रेरक का काम किया हो लेकिन यह कालखंड भारतीय राष्ट्र या जनतंत्र का प्रणेता नहीं है. भारत की राष्ट्रीयता या जनतंत्र की जड़े इसकी सभ्यता में ही समाहित हैं. तुलसीदास रचित रामचरितमानस ऐसी ही कृति है जो न सिर्फ़ भारतीय सभ्यता के महती मूल्यों को अभिव्यक्त करती है बल्कि उसे पुष्ट भी करती है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन पर तुलसी साहित्य का प्रभाव सुविदित है. वास्तव में भारत में जनतंत्र की ग्राह्यता तथा इसकी सफलता के आधारभूत कारणों में रामचरितमानस जैसा जनसाहित्य ही है. मानस में वर्णित राजव्यवस्था का स्वरूप भले ही राजतंत्रीय हो लेकिन इसकी आत्मा पूर्णरूपेण जनतांत्रिक है. राम भले ही राजा हैं लेकिन उनका व्यवहार दूसरों के साथ हमेश सखा भाव का है, चाहे वह शरणागत राक्षस विभीषण हो, कृपाभाजन वानर सुग्रीव हो या वनवासी निषाद. "अधम ते अधम अधम अति नारी" शबरी को वह माता के रूप में देखते है. गिद्ध जटायु का वह पुत्रवत अंतिम संस्कार करते हैं. राम की दृष्टि समदर्शी है. लोक व्यवहार में वह किसी भी तरह की असमानता स्वीकार नहीं करते हैं. शबरी को संबोधित करते हुए वह कहते हैं कि जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल , कुटुम्ब, गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भक्ति भाव से रहित मनुष्य कैसा लागता है जैसे जलहीन बदल दिखाई पड़ता है. वास्तव में श्रीराम समाज में व्याप्त असमानता के समस्त आधारों को अस्वीकार कर देते हैं. उनके लिये भक्ति ही प्रधान है. ऐसे ही अयोध्याकाण्ड में वसिष्ठ श्री राम को सलाह देते हैं कि पहले भरत की विनती सुनिए, फ़िर उसपर विचार कीजिए. तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ निकालकर वैसा ही कीजिए. यह निर्णय लेने की सर्वाधिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. इस तरह की प्रक्रिया किसी भी तरह के अधिनायकवादी सोच का सशक्त प्रतिकार है. यह प्रक्रिया लोकमत को परिमार्जित कर उसे लोकहित में परिवर्तित करती है. उत्तरकाण्ड में वर्णित संभाषण में श्रीराम के वचन भी जनतांत्रिक भावना की पराकाष्टा है. इसमें श्रीराम कहते हैं कि यह बात मैं ह्रदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ. न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है . इसलिए मेरी बातों को सुन लो और यदि तुम्हें अच्छी लगे तो उसके अनुसार करो. वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरे आज्ञा माने. हे भाई ! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर मुझे रोक देना. यह वचन संप्रभु नृप के हैं जो परमब्रह्म विष्णु के अवतार हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इससे स्पष्ट घोषणा क्या हो सकती है! रामचरितमानस का प्रत्येक अंश वास्तव में श्रेष्ठतम जनतांत्रिक चेतना से अनुप्रमाणित है. भारतीयों ने पीढ़ियों से इस महाकाव्य का अध्ययन और अनुशीलन कर इन सिद्धांतों को अंगीकार कर लिया है. रामचरितमानस भारतीय जनतंत्र का प्रबल स्तम्भ है जिसकी वजह से भारत में जनतंत्र न  सिर्फ़ टिका है बल्कि नित नई ऊँचाईयों को छू रहा है.

1 टिप्पणी:

  1. श्री रामचरित मानस भारतीय समाज का मार्गदर्शक ग्रन्थ है .आपने इसमें वृंत जनतांत्रिक मूल्यों को लक्ष्य कर सार्थक आलेख सृजित किया है आभार

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