उक्त लेख की समकालीन प्रासंगिकता यह है कि नवीन प्रौद्योगिकियों ने मानवता के मध्य भौगोलिक और भाषाई अंतर को पाट दिया है, और साथ ही, विभिन्न सांस्कृतिक वर्षों में स्थित जनों को अन्य संस्कृतियों को देखने और समझने का अवसर दिया है। आज का समांतर आंकिक क्षेत्र ज्ञानमीमांसा को सांस्कृतिक और सभ्यतागगत सीमाओं से मुक्ति का अवसर देता है। यह सभ्यता के विकास का युगांतकारी दौर है।
बड़ी चुनौती हालाँकि कल्पबंधों की गुत्थियों को खोलना होगा। कालांतर में इच्छानुकूल वैचारीकियों का प्रभाव आनुवंशिक हो गया है और ये मस्तिष्क की बोध उत्तकों की आधार संचालक चेतना बन चुकीं हैं। ये कल्पबंध वातमूल्य उत्पन्न करते हैं और जीवन की प्रत्यक्ष परिस्थितियों का सामना कर रहे लोगों की गरिमा को नकारते हुए उनकी विपत्तियों को वर्द्धित करते हैं।
इस युगीन विमर्श का अधिकारी भारतवर्ष ही है। इसकी चेतना में अन्यीकरण की प्रवृत्ति की सैद्धांतिक और व्यावहारिक अनुपस्थिति ऐतिहासिक रूप से रही है और यह इसे इस योग्य बनाती है और दायित्व भी देती है।
टीप : कल्पबंध, आंकिक, और वातमूल्य संभवतः इस पाठ में सर्वप्रथम प्रयुक्त शब्द हैं और इसी में इनके अर्थ समाहित हैं।
नीरज कुमार झा
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