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रविवार, 26 मई 2024

ज्ञानदंभ

मानवीयता का सार और स्वरूप, दोनों ही, ज्ञान है। किसी में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता का अभाव उसमें मानवीय गुणों का अविकसित रह जाना है (यहाँ ज्ञान का अभिप्राय आदमियों के निर्धारित कार्य में मशीनी प्रवीणता से नहीं है।)। प्रत्येक सभ्य समाज में प्रारम्भिक औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था इसी उद्देश्य से की जाती है कि बच्चों में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता जगायी जा सके। औपनिवेशिक शिक्षाप्रणाली इसका अपवाद है (यहाँ औपनिवेशविक शासनप्रणाली से अभिप्रयाय उस शासनप्रणाली है से जिसमें शासनकर्मियों के लिए उनके द्वारा शासित/सेवित जन का हित उनका प्रधान सरोकार नहीं हो पाता है।)। ऐसी व्यवस्थाओं में बच्चों और लोगों की औपचारिक रूप से शिक्षित तो किया जाता है लेकिन व्यवस्था-नियोजन इस तरह से होता है कि उसके प्रभावस्वरूप शिक्षार्थियों की ज्ञानग्राह्यता की क्षमता प्रभावी रूप से कुंठित हो जाती है। आज की प्रौद्योगिकी की भाषा में कहें तो उनकी प्रोग्रामिंग की जाती है। ऐसी निष्प्रभावी शिक्षा का प्रभाव किसी व्यक्ति में स्पष्ट दिखता है। वह है उनका तथाकथित ज्ञान को लेकर दंभ। ऐसे व्यक्तिअक्सर मिल जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कर्ण मात्र स्वयं के मस्तिष्क की प्रतिध्वनि का श्रवण करते हैं।

नीरज कुमार झा

गुरुवार, 23 मई 2024

Tonguing a Foreign Tounge

Perfecting the craft of scholarship alone does not make you a true scholar. A hundred citations may not make a piece speak for a reality. Opposing an oppressive order, for instance, epistemological imperialism, does not make you a democrat. You may only be caricaturing the imperialists seeking your little fiefdom. Or worse, you may be trying to capture the dissenting space for the same imperialists you are pretending to resist.
 
The vocal system of a person is attuned to their cultural production of sounds and not to others. Only through a very long and conscious practice, people train their tongue to pronounce the words of a foreign language. It is no less than torturing one's tongue.
 
We are also cultural beings. rather, with a longer history than most and as all cultural beings do, we can also twist the pronunciations, idioms and everything, which goes into making a language in spoken and written forms to our comfort. There is no problem as long as the other or a native speaker of a language can understand what we are trying to communicate, even if the listener has to make some extra effort. In fact, they should have corrected their language by making the spellings of words match their phonetic forms or vice versa. If they do not bother about the mismatch between how they write and speak, why should we?

We surf the internet and find many acceptable variants of any language and ways of pronouncing even proper nouns. Strangely, the very senior scholar does not know this.
 
Niraj Kumar Jha

बुधवार, 22 मई 2024

कोशिशें जारी रहीं

मैंने पूरी कोशिशें की
कि मेरा अपना वह बड़ा बन जाए

मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा
मेरी कोशिशें और निवेश काम आये 

कोशिशे बाद भी जारी ही रहीं 
कि अपना वह अपना बना रहे

नीरज कुमार झा

पहचान

पहचान की खोज में अधिकतर लोग अपनी पहचान खो देते हैं। ऐसे लोग छलावे की पहचान से काम चलाने की कोशिश करते हैं और सामान्य जीवन की सहजता को नष्ट कर देते हैं।

जो लोग प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, उनकी त्रासदी और भी गंभीर है। प्रसिद्ध व्यक्ति पुराना व्यक्ति नहीं रहा जाता है। प्रसिद्धि की एक अलग दुनिया होती है जिसमें प्रवेश पाने वाला व्यक्ति एक नया व्यक्ति होता है और नये व्यक्तियों के साथ होता है।

आदमी का लक्ष्य उसका स्व और स्वयं की स्थिति होना  चाहिए, लेकिन वह अपनी की बजाय एक सपने की दुनिया देखता है जिसमें उसके समेत सभी किरदार नए होते हैं, और वह उसे प्राप्त करने में लगा रहता है।

आदमी स्वयं रहकर और अपनी स्थिति में ही क्यों नहीं जीना चाहता है? उसे ही क्यों नहीं वह बेहतर बनाना चाहता है?

इसका कारण सामान्यतः लोगों के जीवन में अपमान और वंचना का अनुभव असह्य होना है। ऐसी स्थिति की व्याप्ति का इतिहास है।

हमें एक-दूसरे का सम्मान करना सीखना होगा। एक-दूसरे के काम आना होगा। एक-दूसरे की निजता स्वीकार और दूसरे की उपलब्धियों की सराहना करनी होगी। प्रत्येक व्यक्ति को यह भी ध्यान रखना होगा कि सफलता के अनुपात में उसकी विनम्रता भी बढ़े। उसे पता होना चाहिए कि आक्रामक सफलता पशुता का परिचायक है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 19 मई 2024

आदमी हुक्म बजाता है

चेहरे पर मुखौटा है
मुखौटा ही बोलता है
मुखौटा ही सोचता है
मुखौटा ही बताता है
आदमी हुक्म बजाता है

नीरज कुमार झा

शनिवार, 18 मई 2024

Beyond Ideological Fixation

People's worldview or their approach or orientedness to life is largely ideologically determined or that may be an evolved ideology by itself. People may be indoctrinated into an ideology or they might have been in it through generations as an evolutionary process. People may be lethargic or fearful of thinking afresh and thus ideologies exist inevitably as fixities.

Settled ideologies serve people to their comfort. Disturbing stability may not surpass the troubles it may cause in terms of the benefits it may reap. Therefore, the rational path is a piecemeal approach to social good. However, a piecemeal approach requires extraordinary philosophical minds in action. The challenge remains; how to get those extraordinary minds and bring them into action. What we can do is to make people realise that they see things through ideological lenses and reality may vary. And, an unjust order helps none. If this somehow gets into our operative epistemology, we may at least have the chance of having people more capable of seeing things as they are.

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 16 मई 2024

बुधवार, 15 मई 2024

Schools

 If schools run well, everything goes well. 


Niraj Kumar Jha 

Cooperativism

 Cooperatives can be the most wonderful way to organise social life and ensure dignified livelihoods provided these are voluntary and mutual. Business cooperatives for any economic activity can immensely benefit all its members and compete well with even giant corporations. In particular, milk cooperatives and self-help groups in India have amply proved this. The way can be extended to social living by integrating individuals and families into caring communities. However, it would require setting norms for combining individual freedom and community responsibilities and a smooth procedure for joining and exiting a community. 

    Cooperatives fit perfectly in a capitalist order as the cooperatives may work as productive units of the economy while doing away with many probable ills of capitalist centralisation or even democratic centralisation. 

Niraj Kumar Jha 

रविवार, 12 मई 2024

बौद्धिक वृत्ति कौशल

परिस्थितियों को लेकर उद्वेग, हर्ष अथवा विषादपूर्ण, बौद्धिक (लोकाचार बौद्धिकता) वृत्ति कौशल का परिचायक नहीं है। अधिकतर बुद्धिवृत्तिक यह नहीं जानते हैं कि उनके समान अन्य वृत्तिक का विचार उनसे  विपरीत क्यों है, यदि वे  किसी परिघटना से असन्तुष्ट हैं तो उसमें उस विचारधारा का क्या योगदान है जिसका वे परिवर्द्धन कर रहे हैं, यदि वे किसी परिघटना से संतुष्ट हैं तो वह परिघटना आगे क्या मोड़ लेने वाली है, विशिष्ट परिस्थिति और उनसे निःसृत विचारों की पृष्ठभूमि क्या है, और तमाम सामाजिक और वैचारिक विभाजनों का न्यायपूर्ण व सर्वहितकारी समाधान क्या है? यदि बुद्धिवृत्तिक क्षणिक परिस्थतियों में उलझे हुए  भावावेग में है तो वे गलत वृत्ति में हैं। बुद्धिजीवी का धर्म निर्लिप्त भाव से सर्वमंगल हेतु बुद्धि प्रयोग है। 

नीरज कुमार झा 

कथाकारिता की सीमाएँ

कथारूप में जीवन का निरापद प्रतिनिधित्व लगभग असंभव है। अधिकतर कथाएँ (विशेषकर मनोरंजन उद्योग के द्वारा प्रयुक्त कथाओं की प्रकृति) एक विशेष व्यक्ति पर केंद्रित होती हैं, और अन्य  सभी जन और परिस्थितियाँ उस चरित्र की केन्द्रीयता को पोषित करती हैं। समस्त को एक व्यक्ति के हेतु निमित्त  के रूप में  निरूपण  जीवन की वास्तविकता का विरूपण है। यह कथाकार की आत्मकेंद्रीयता और  अहमन्यता की प्रवृत्ति के  प्रतिबिंबन के फलस्वरूप  और लक्षित उपभोक्ताओं के समान भावनाओं की तुष्टि के लिए होता है।  इसका दुष्परिणाम है; यह पाठकों और दर्शकों के दृष्टिकोण को संकुचित करता है। वह स्वयं को नायक में स्थित करते हुए कथा को  ग्रहण करता है और अन्य को हेतु के रूप में देखता है। इस कारण से उसमें संवेदना और अन्य के प्रति सम्मान का भाव नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है और वह हमेशा कुंठाग्रस्त रह सकता है। एक सुधी व्यक्ति  को कथाकारिता की सीमाओं की भिज्ञता रखनी चाहिए और उसे  इससे अन्य को अवगत कराना चाहिए। 

नीरज कुमार झा 

शुक्रवार, 10 मई 2024

तुम देखना कवि

तुम देखना कवि
कहीं तुम्हारा अभिव्यक्ति का कौशल
जीवन पर हावी तो नहीं हो रहा है
कहीं अहं को तुमने तो नहीं बना रखा है दसवाँ रस
और सभी रसों में उसे ही घोल रहे हो
कवि, तुम याद रखना
मूक जीवन मुखर होने
तुम्हारी तरफ देख रहा है
जो द्रव बन सींच रहे जीवन को
उन्हें स्वर तुम्हें उसी विनम्रता से देना है
तुम साथ रहो, साझेदार बनो
मानवता पुकार रही है
तुम एक हो, लेकिन अनेक से अलग नहीं
तुम्हें ही यह समझना है, तुम्हें ऐसे ही रहना है
 
नीरज कुमार झा

बुधवार, 8 मई 2024

The Job of Teachers

The formative years of people are foundational for their intellectual becoming. What they learn primarily stays with them throughout their lives and judges for them all other ideas and conditions which come later to them. They may turn opportunistic while maturing but the formative learnings inform their morality even if they may not care for that. When they speak, it comes from their basic learnings and what they do carries the weight of living conditions. The dichotomy is due to the weakness of epistemology but that is not a concern of this post. It is about the job of teachers who play a crucial role in the becoming of beings. They must cultivate the ability and strength to see through the ideas and ideologies that pervade the times and to see that the young people they work with can find their path by applying their genius. 

Niraj Kumar Jha 

सीखना

ज्ञानी होना कोई स्थिति नहीं है, यह ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति है। यह सीखते रहने की निरन्तरता है। ज्ञानी होने का प्रधान पक्ष कुशल होना नहीं, जिज्ञासु होना है। कार्यकुशलता और विनम्रता ज्ञानवान होने के स्वाभाविक लक्षण हैं। वैसे सीखना किसी व्यक्ति के लिए प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन यह सीख परिस्थितियों से अवगत होना मात्र है। ज्ञान का संबंध परिस्थितियों की व्यापक समझ से है, जो परिस्थितियों के कारण-परिणामों के रूप में विभाजित करने और उसपर कार्य करते हुए समस्यामूलक स्थितियों का निवारण और सुधार को लेकर है। इस तरह का सीखना स्वाभाविक नहीं है, इसके लिए काफी प्रयत्न करना होता है। सीखने का कौशल प्राप्त करना प्रयास के क्रम में कभी एकाएक होता है या फिर कभी नहीं होता है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 5 मई 2024

विकास बुद्धि

मानव प्राकृतिक रूप से विकासशील प्राणी है। जंगलों में खाद्य शृंखला की एक कड़ी के रूप में रहने वाला  मानव आज जंगल के राजा को पिंजरे में रखता है और चाँद और मंगल तक अपनी पहुँच बना चुका  है। तकनीकों का आविष्कार और प्रयोग भी मनुष्यत्व का अहम भाग है, और उसकी उन्नति का हेतु है। इस तथ्य के इतर यह सच्चाई भी है कि यदि मानव विकास नहीं करेगा तो उसका ह्रास होगा। यथास्थिति में कोई  समुदाय रह तो सकता है लेकिन जहाँ अन्य आगे बढ़ेंगे तो वह समुदाय इस जुड़ी दुनिया में पीछे रह जाएगा और उसका शोषण होगा।  मानव जाति में अभी यह परिपक्वता नहीं आई है कि जो समुदाय यदि दूसरों को बिना नकारात्मक रूप से प्रभावित किए हुए  यथास्थिति में  रहता है तो उसे  उस स्थिति में रहने दे और उसका सम्मान करे। 

किसी भी देश के लिए इस दुनिया में यह अपरिहार्य है कि वह विकासशील रहे। विकसित जैसा कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है क्योंकि यह दुनिया प्रतियोगी है और एक देश दूसरों के ऊपर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि दुनिया के लोग आपस में सहयोग करें और सभी अपने जीवन को बेहतर बनाएँ। इस स्थति में भी परिस्थितियों को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास समाप्त नहीं हो सकता है। 

विकास के लिए  जरूरी है विकासोन्मुख सोच। मानवता के विकास के इस चरण में विकसित होने की एक स्थिति देशों का  गणतंत्रात्मक होना है। इसमें देश के संचालन में नागरिकों की भूमिका आधारभूत होती है।  नागरिक राजनीतिक विषयों को समझने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उनपर लेकर चर्चाएँ करते हैं, और अच्छे विचारों को क्रियाशील बनाने  के लिए सामूहिक रूप से सजग और प्रयासरत रहते हैं। गणतांत्रिक देशों में इस कार्य में अनेक अभिकरण भी अपना योगदान देते हैं। इसको लेकर यदि उदासीनता व्यापक है तो उस देश में यह प्रजाभाव की अवांछित निरन्तरता है। 

यह तो बिल्कुल साफ है कि नागरिक  समझ को सोर्स (विभिन्न बौद्धिक संसाधनों का उपयोग) तो करें  लेकिन आउट्सोर्स (डिब्बाबंद बौद्धिक सामग्रियों का उपयोग) नहीं करें। इसके बावजूद  नागरिक बौद्धिकता और सक्रियता अपने आप में पर्याप्त नहीं है। इसका विकास की दिशा में होना भी जरूरी है। बिना उचित परख के बौद्धिकता और सक्रियता भी पतनोन्मुख हो सकती है। स्वस्थ विचार स्वहित और सर्वहित के उचित समन्वय पर आधारित होता है। दूसरा, यह व्यक्ति के अस्तित्व और स्वायत्तता को आधारभूत दृष्टिगत करते हुए  उसकी भूमिका सामूहिक हित और पर्यावरणीय संतुलन के परिप्रेक्ष्य में निरूपित करता है। तीसरा, विकास की सोच सदैव ओपन एंडेड (खुली) होती है।यह सोच गंतव्य को लेकर नहीं बल्कि दिशा को लेकर होती है। चौथा, विचार ऐसा नहीं हो जिसके क्रियान्वयन से परिवर्तन की प्रकृति  स्वयं से आपदाकारी हो जाए।   अब मैं अपने लक्ष्य बिन्दु की ओर आता हूँ जो इस संदेश का सरोकार है। 

हमें हमारे समक्ष उपलब्ध समस्त विचारो, अवधारणाओं,  विचारधाराओं, पद्धतियों को अपनी  सोच-समझ के सहायतार्थ ही उपयोग करना चाहिए। यदि उनमें से कोई  हमारे सोच-समझ की क्षमता को नकारता है,  हमारे अस्तित्व की महत्ता का मान नहीं देता है, या हमारे अभिकरण का हरण करना चाहता है तो यह सर्वथा त्याज्य हैं। पहले वाक्य की समझ हमें दूसरे वाक्य की स्थिति से बचाती है। 

"उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।"

ऊपर मेरे द्वारा लिखी बातें मुझे अपनी शैक्षणिक प्रशिक्षण की पृष्ठभूमि में असाधारण लग रही है। आपको कैसी लगी। विमर्श का आवाहन।  

नीरज कुमार झा 

शुक्रवार, 3 मई 2024

Individualism and Communitarianism

I do not see individualism and communitarianism as contrary ideas. Rather, I see each enriching the other. Robust individualism reforms older communities and generates new communities. Individualism is about refashioning society in the spirit of egalitarianism. I do not see egalitarianism as equality, an other-worldly concept, but as a community of individuals who enjoy autonomy and freedom to choose. Invoking equality is an open invitation to authoritarianism. Nonetheless, the sad reality is that community life is declining as individualism gathers momentum. The reason is that we need to design a proper template for scripting individualism.

Niraj Kumar Jha

आँसू

पीड़ा किसे नहीं है और दुख से कौन अछूता है
सहानुभूति अधिकार सभी का, दायित्व भी  है

ऐसा नहीं हो कि कोई अपने आँसुओं को रोक ले
किसी का बहे आँसू तो कोई पोंछने वाला न मिले

मुसकाना-हँसना लोगों का खिल जाना है
इन फूलों को सींचता आँखों का आँसू है

नीरज कुमार झा