पृष्ठ

सोमवार, 13 अगस्त 2012

उम्मीद की पतली डोर

उम्मीद की पतली डोर है
परखो इसे मत इतना कि
रेशा-रेशा इसका उधड़ जाए
तुम चिंता क्यों नहीं करते
दल-दल की जिसमें हो
तुम बुरी तरह फँसे
निष्क्रिय शरीर और
चोंचलेबाजी में तुम्हारी महारत
हैरत की बात है
ऐसा तो नहीं है कि
तुम्हारे खुले मुंह में
कोई  कुछ डाल जाता है
और तुम उसी की टर्राने लगते हो


- नीरज कुमार झा