मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।[1]
तुलसीदासविरचित रामचरितमानस के सुन्दर काण्ड के समुद्र प्रसंग की उक्त चौपाई की दूसरी अर्द्धाली इस महाकाव्य की एक अत्यधिक विवादित उक्ति है। इस उक्ति को रामचरितमानस जैसे महाकाव्य तथा तुलसीदास जैसे महाकवि को ही नहीं वरन् सनातन धर्म की आलोचना में भी अनवरत रूप से दुहराया जाता है। इस कथन को तुलसीदास समेत सनातन धर्म को रूढ़िवादी, स्त्रीविरोधी, सामाजिक विभेद तथा वंचित वर्गों के दमन का समर्थक, मानवीय गरिमा का प्रतिगामी और मध्ययुगीन मान्यताओं का पोषक सिद्ध करने के लिए प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मूढ़ और आपराधिक प्रवृत्ति के पुरुष स्त्रियों के प्रति अपने कुकृत्यों को उचित ठहराने के लिए भी इस उक्ति का सहारा लेते हैं। सबसे बड़ी बात, इस उक्ति के सतही या प्रचलित भाव से दलित वर्ग न केवल आहत होता है बल्कि पूरी सनातन परम्परा का दलित विरोधी होने के पक्ष में एक प्रामाणिक साक्ष्य पाता है । यह सोच स्त्रियों की भी हो सकती है कि सनातन दर्शन पुरुष प्रधानता की ही नहीं बल्कि स्त्री अवपीड़न की भी क्रूर योजना है। प्रकट रूप से इस उक्ति से ऐसा लगता भी है कि समाज में कमजोर वर्गों और स्त्रियों का उत्पीड़न प्राकृतिक ही नहीं बल्कि ईश्वरीय भी है। इस कारण से सामाजिक और पारिवारिक रूप से पीड़ितों/पीड़िताओं में से भी अनेक अपनी स्थिति को स्वयं की नियति मान लेते हैं।
इस तरह के दृष्टिकोण, मानसिकता या योजना के पीछे मानस के समुद्र प्रसंग में समुद्र के इस कथन का सामान्यतः बिल्कुल सपाट तरीके से यह अर्थ लगाया जाना है कि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी उत्पीड़न के अधिकारी हैं । इस उक्ति के सीधे-सीधे उच्चारण से सबसे पहले ढोल की तस्वीर दिमाग में बनती है जिसे ध्वनि उत्पन्न करने के लिए पीटा जा रहा हो। फिर पशु की, जिससे काम लेने के लिए आदमी उसे पीट रहा है। ढोलक का पीटा जाना स्वाभाविक है लेकिन जब पशुओं के साथ भी करूणा का भाव अपेक्षित है तो मनुष्यों को पीटा जाने योग्य की श्रेणी में रखा जाना निश्चय ही घोर आपत्तिजनक है। प्रकटतया इस उक्ति से यह बोध होता है कि अन्य समेत शूद्र और स्त्री को प्रताड़ित किया जाना और उनके द्वारा प्रताड़ित होना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि वांछनीय भी है और दुर्भाग्य से इस उक्ति को अनेक जन इसी अर्थ में लेते हैं। यहाँ तक कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपनी महाकृति ‘गोस्वामी तुलसीदास’ में इस प्रचलित अर्थ को ही मान्यता दी है - “ऊँची नीची श्रेणियाँ समाज में बराबर थीं और बराबर रहेंगी। ... इस बात को मनुष्य जातियों का अनुसंधान करनेवाले आधुनिक लेखकों ने भी स्वीकार किया है कि वन्य और असभ्य जातियाँ उन्हीं का आदर सम्मान करती हैं जो उनमें भय उत्पन्न कर सकतें हैं। यही दशा गँवारों की है। इस बात को गोस्वामीजी ने अपनी चौपाई में कहा है - ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।। ... ‘स्त्री’ का समावेश भी सुरुचिविरूद्ध लगता है, पर वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा न मानना चाहिए।”[2]
इस उद्धरण का जो अर्थ या भावार्थ प्रचलित है, उससे भारतीय समाज में एकरसता और सामाजिक न्याय को अत्यधिक हानि हुई है और हो रही है। इसका कारण इस महाग्रन्थ की महत्ता है। यहाँ यह उल्लेख समीचीन होगा कि भारतीय जनजीवन पर तुलसी साहित्य और विशेषकर रामचरितमानस का अत्यधिक प्रभाव है। यह ग्रन्थ मात्र एक महाकाव्य नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता को परिभाषित और परिष्कृत करने का क्रियाशील महासूत्र है। दूसरी तरफ रामकथा स्वयं भारतीय सभ्यता के सामाजिक आचार का विधान रहा है, जिसका समय-समय पर भिन्न भाषाओं में मनीषियों ने युगीन संदर्भों के अनुसार अद्यतन करते हुए पुनर्लेख किया है, जिनमें गोस्वामी की रामगाथा आज के संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ विडम्बना यह है कि रामकथा और विशेषकर तुलसी रामायण के व्यापक प्रभाव के कारण इस उद्धरण से भारी भ्रम पैदा हुआ है और जिसका अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आज के सामाजिक न्याय के महती सरोकार को इस उक्ति के सतही भावानुकरण से कहीं न कहीं गतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।
भारत में राष्ट्रीय सुदृढ़ता, आर्थिक उन्नति, सामाजिक सौहार्द्र और सांस्कृतिक उन्नयन के मार्ग में सामाजिक न्याय का अभाव प्रायः सबसे बड़ा अवरोध है। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में सामाजिक न्याय को नकारती स्त्रियों की सामान्य स्थिति और सामुदायिक विभेद का मौलिक कारण विचारधारात्मक है। यहाँ विचारधारा से अभिप्राय उन मूल्यों और परम्पराओं से है जो सामान्य जीवन को संचालित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का एक जीवन दर्शन होता है और भिन्न समूहों की सामुदायिक सोच होती है, जो एक समेकित विचारधारा के रूप में उनके क्रिया-कलापों को दिशा देती हैं।[3] जहाँ तक सामाजिक भेदभाव का प्रश्न है, प्रचलित मान्यताएँ लोगों के मध्य परस्पर असमानता, द्वेष और घृणा का भाव उत्पन्न करती हैं और समाज में अनधीनता, समानता और सौहार्द्र को अवरूद्ध करती हैं। विचारधारात्मक तादात्म्य का अभाव वर्चस्व और विरोध की राजनीति में परिवर्तित हो जाती है। दूसरी तरफ भारत विरोधी तत्व, निहित स्वार्थ, और कतिपय भ्रमित बौद्धिक इन विभाजनकारी विचारों का पोषण और प्रसार करते हैं।[4] इन विचारधारात्मक मान्यताओं और प्रयासों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय शक्ति का क्षरण, सामाजिक सहयोग में कमी और आर्थिक विकास बाधित होती है। विचारधारात्मक विभ्रम को तोड़ने और निरंतर विचारधारात्मक समन्वय की आवश्यकता भारत जैसे जटिल और विविधता भरे समाज में हमेशा बनी रहती है। ऐसे प्रयास सतत् चलते रहे हैं और ऐसे प्रयास व्यापक स्तर पर भी हुए हैं । पूर्व में उदाहरण के लिए आदि शंकराचार्य, तुलसीदास और आधुनिक युग में महात्मा गांधी के द्वारा इस तरह का महती कार्य सफलतापूर्वक किया गया था जिनकी विरासतें आज भी भारतीय समाज और जनतंत्र के प्रबल स्तम्भ हैं।
भारत का शास्त्रीय दर्शन सावयवी रूप में सनातन मूल्यों को उद्घाटित करती और मानवीयता के सरोकारों को स्थापित करने वाली विचारधारा है लेकिन सुधी जनों की उदासीनता के कारण यह विचारधारा बचाव की मुद्रा में है। उदाहरण के लिए मानस की यह उक्ति भी है, जिसके निहितार्थ को स्पष्ट करने के बजाय इसके बिल्कुल गलत अर्थ को स्वीकारा गया है। वास्तव में इस अर्द्धाली का प्रचलित अर्थ उसके यथार्थ से बिल्कुल अलग है। इस आलेख में उक्त उद्धरण को लेकर भारत में विभाजनकारी तत्वों को बढ़ावा देते भ्रम को तोड़ने, इसके निहितार्थ को स्पष्ट करने, इस प्रसंग में अन्तर्निहित सामाजिक न्याय की स्थापना के आह्वान तथा इसके व्यापक सन्दर्भों और सरोकारों को रेखांकित करने का एक विनम्र प्रयास किया गया है।
सनातन धर्म के अनुयायी और गोस्वामी के भक्त एक तरफ इस उक्ति में ताड़ना का भिन्न अर्थ लगाकर इसके प्रचलित अर्थ के खंडन का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए एक विद्वान का लेख देखा जा सकता है - “ ‘ताड़ना’ का मतलब सिर्फ ‘मारना’ ही नहीं ‘देखना’ भी होता है। फूल भी देखने योग्य है, गंवार भी देखने योग्य है, पशु देखने योग्य है (प्रेमचन्द ने कितना लिखा है पशुओं पर), नारी भी देखने योग्य है। ढोल रह गया है। यह एक शरारत है।”[5] कुछ लोग ताड़ना से अभिप्राय नज़र रखना या सीमा में रखा जाना बताते हैं। उनके अनुसार इन पर नज़र रखनी चाहिए ताकि ये सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करें । हालांकि इस स्पष्टीकरण से कोई बात बनती नहीं है । अन्य ताड़ना को तारना बतातें हैं जिसका अर्थ है उद्धार किया जाना। एक अर्थ यह भी लगाया जाता है कि ढोल मूल रूप से ढोर (जिसका अर्थ मवेशी होता है) शब्द रहा होगा और ‘पसु नारी’ से अभिप्राय पशु समान नारी से है। दूसरी तरफ, आस्थावान और तुलसीदास के प्रति श्रद्धालु सुधीजन इस उक्ति को गोस्वामी की उक्ति नहीं बल्कि मानमर्दित और भयातुर जड़ समुद्र का प्रलाप बताते हुए तुलसीदास को दोषमुक्त करने का प्रयास करते हैं।
वास्तव में इस उक्ति को लेकर दिए गए उक्त प्रकार के स्पष्टीकरण भी सही दिशा में नहीं हैं। इसमें सबसे प्रामाणिक स्पष्टीकरण अंतिम ही है कि यह तुलसीदास के वचन नहीं होकर समुद्र की उक्ति है। भले ही यह उक्ति समुद्र की हो लेकिन यह उसका भावनात्मक उद्गार नहीं होकर नीतिवाक्य है। “सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।[6] श्रीराम का मुसकराना समुद्र की बातों का स्पष्ट अनुमोदन है लेकिन गोस्वामी का भाव वह हो ही नहीं सकता जैसा सामान्यतया समझा जाता है। रामचरितमानस के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण और वंदनाओं के क्रम में तुलसीदास जगत के समस्त जड़-चेतन की रामरूप में वंदना करते हैं। “जगत् में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलोंकी सदा दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता हूँ। देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए। चैरासी लाख योनियोंमें चार प्रकारके (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव, जल, पृथ्वी, और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत् को श्रीसीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।”[7] समस्त जड़-चेतन को सीताराममय देखने वाले तुलसीदास से प्रचलित अर्थ में इस तरह की अभिव्यक्ति या उसकी पुष्टि किया जाना नितांत असंगत है। समुद्र के मुख से भी इस तरह की उक्ति तुलसीदास को स्वीकार्य नहीं हो सकती है ।
मङ्गलाचरण में ही तुलसीदास सरस्वतीजी, पार्वतीजी, एवं सीताजी की वंदना को वरीयता देते हैं। क्रमशः इनके बाद आप गणेशजी, शिवजी और रामजी की वंदना करते हैं। बालकाण्ड का प्रारम्भिक पाँचवाँ श्लोक मात्र सीताजी के वंदना के निमित्त है। “उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली, क्लेशों को हरनेवाली तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली श्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ।” ये समस्त महादेवियाँ नारियाँ ही हैं। क्या गोस्वामी स्त्रियों के प्रति नकारात्मक भावना रख सकते है? ऐसे दृष्टान्त अनेक हैं जहाँ तुलसीदास का पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के प्रति अधिक सम्मान मुखर है। यहाँ तक कि रावण, जो आसुरी प्रवृत्तियों का देहरूप है, मंदोदरी के द्वारा दिए गए उसी सलाह के बावजूद, जिसको लेकर उसने विभिषण पर चरण प्रहार किया था, मंदोदरी से कुछ नहीं कहता और उसे ह्रदय से लगाकर स्नेह का ही प्रदर्शन करता है। दूसरे शब्दों में, रामचरितमानस में कहीं भी स्त्री को प्रताड़ित होते नहीं दिखाया गया है। सिर्फ स्त्री ही नहीं, विभिन्न जातियों और मानवेतर जीवों, यथा, केवट, निषाद, जटायु तथा अनगिन वानर-भल्लुकों के साथ श्रीराम का व्यवहार गरिमा से पूर्णरूपेण युक्त है। कहीं भी ऊँच-नीच का भाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। मान्यता के अनुसार जीवजगत् में गिद्ध से अन्त्यज कोई नहीं हो सकता है। गिद्ध को अशुद्ध और अपशकुनी माना गया है लेकिन श्रीराम जटायु को तात सम्बोधित करते हैं और स्वयं अपने हाथों से उसका अंतिम संस्कार करते हैं। “अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम। तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम।।”[8] आगे तुलसीदास लिखते हैं,“गीध (पक्षियोंमें भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं।”[9] दूसरी तरफ गाय है जो पशु की श्रेणी में आती है लेकिन माता के रूप में प्रत्येक हिन्दू के द्वारा पूजनीय है। गांधीजी लिखते हैं -“हिन्दुओं की परख उनके तिलकों, मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, तीर्थयात्राओं तथा जात-पात के अत्यौपचारिक पालन से नहीं की जाएगी, बल्कि गाय की रक्षा करने की योग्यता के आधार पर की जाएगी।”[10] हिन्दू सभ्यता में गाय का स्थान अनिर्वचनीय है। जब पृथ्वी जीवदेह धारण करती है तो वह गाय के रूप में होती है। क्या गोस्वामी तुलसीदास पशु के रूप में गाय के उत्पीड़न के अधिकारी होने की बात कह सकते हैं? कदापि नहीं, बल्कि इसके विपरीत उन्होंने रामावतार का उद्देश्य ही धरती, ब्राह्मण, गौ और देवताओं का हित निरूपित किया है। “गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।”[11]
केवट के प्रति श्रीराम का व्यवहार देखने योग्य है। “जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।। सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।”[12] रामचरितमानस में वनवासी निषाद का एक परिचय - “निषादराजने मुनिराज वसिष्ठजीको देखकर अपना नाम बतलाकर दूरहीसे दण्ड़वत्-प्रणाम किया। मुनीश्वर वसिष्ठने उसको रामका प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजीको समझाकर कर कहा कि यह श्रीरामजीका मित्र है। यह श्रीरामका मित्र है, इतना सुनते ही भरतजीने रथ त्याग दिया। वे रथसे उतरकर उमँगते हुए चले।”[13] निषाद का रामसखा देखा जाना और अयोध्या के सम्राट भरत का आचरण क्या सिद्ध करता है? ऐसे दृष्टांत तुलसी साहित्य में बारम्बार आते हैं जो सामाजिक और जैविक भेदभाव को ख़ारिज करते हैं। शबरी और श्रीराम के इस संवाद में सामाजिक साम्य की जो अवधारणा है, वह अनन्य है। “अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी।। कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानों एक भगति कर नाता।। जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।। भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।”[14] जात-पात ही नहीं, तुलसीदास ने इन दोनों चैपाइयों के माध्यम से सामाजिक असमानता के हर संभावित आधार को नकार दिया है। वास्तव में प्रचलित अर्थ में समुद्र की यह विवादित उक्ति इस महाकाव्य की भाव, शैली और प्रवाह के विपरीत है। यही कारण है की लब्धप्रतिष्ठ समालोचक रामविलास शर्मा इस अर्द्धाली को क्षेपक मानते हैं। आप लिखते हैं - “ढोल गँवार वाली पंक्ति समुद्र के बातचीत में आयी है, जहाँ वह जल होने के नाते अपने को जड़ कहता है और इस नियम की तरफ इशारा करता है कि जड़-प्रकृति को चेतन ब्रह्म ही संचालित करता है। वहाँ एकदम अप्रासंगिक ढंग से यह ढोल गँवार शूद्र वाली पंक्ति आ जाती है। निःसन्देह यह उन लोगों की करामात है, जो यह मानने को तैयार नहीं थे कि नारी पराधीन है और उसे स्वप्न में भी सुख नहीं है।[15] डा. शर्मा रामचरितमानस की इस उक्ति का उल्लेख कर रहे हैं - “कत बिधि सृजी नारी जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।।”[16]
इस चौपाई की दूसरी अर्द्धाली का प्रचलित अर्थ, जिसे अनर्थ कहना ही उपयुक्त होगा, का कारण उद्धरण को संदर्भ से अलग कर देखा जाना है। प्रचलित समझ के विपरीत जो इस कथन का प्रकट और अनेक विद्वानों के द्वारा व्याख्यात अभिप्राय है, वह अल्पज्ञात है। इस चौपाई को ही सम्पूर्णता में देखने पर इसके सुप्रकट अर्थ का संकेत मिल जाता है। ब्राह्मण रूप में प्रकट समुद्र कह रहा है कि प्रभु ने अच्छा किया कि मुझे सबक सिखाया लेकिन मेरी मर्यादा तुम्हारी ही कृति है। दूसरे शब्दों में समुद्र की प्रकृति और स्वभाव ईश्वर के द्वारा ही निर्धारित है और उसका व्यवहार अनपेक्षित नहीं है। स्पष्ट है कि यहाँ समुद्र स्वयं के विषय में बता रहा है और चौपाई की दूसरी अर्द्धाली इसी कथन का विस्तार है। ताड़ना के अधिकारियों में इस तरह से वह स्वयं भी शामिल है। अध्यात्म रामायण में समुद्र की गुहार का यह अंश इस तथ्य को स्पष्ट करता है - “हे अमरश्रेष्ठ प्रभो! पशुओं को जैसे लाठी ठीक-ठीक मार्ग में ले जाती है उसी प्रकार (मुझ जैसे) मूर्ख जीवों के लिए दण्ड ही सन्मार्ग पर लाने वाला होता है।”[17] इस चौपाई को इसके पूरे सन्दर्भ में देखने से इसका अभिप्राय स्पष्ट होता है। इस चौपाई को पहले और बाद की चैपाइयों के साथ पढ़ने पर समुद्र के कथ्य के मर्म को समझा जा सकता है।
सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मोरे ।।
गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनी गाए ।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ।।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरी बड़ाई ।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ।।[18]
उक्त चौपाइयाँ श्रीराम से समुद्र की क्षमायाचना और विनती है। यहाँ समुद्र प्रसंग की अतिसंक्षेप में पुनरावृत्ति इस प्रसंग के सन्दर्भ को समझने में सहायक होगी। श्रीराम लङ्का के विरूद्ध सैन्य अभियान के लिए समुद्र पार करने हेतु समुद्र से विनती करते हैं। ऐसा करते हुए तीन दिन बीत जाते हैं लेकिन श्रीराम की विनती अनुत्तरित रहती है। क्रोधित श्रीराम के शरसन्धान मात्र से उत्पन्न विनाश की विकरालता देखकर भयातुर समुद्र ब्राह्मण वेश में ईश्वर के समक्ष उपस्थित होता है और उपर्युक्त वचन कहता है। इस पृष्ठभूमि से समुद्र के कथन का सम्बन्ध दो तरह से है। पहला यह कि इस प्रसंग में समुद्र स्वयं के पार उतरने का उपाय बताता है लेकिन इस प्रसंग का दूसरा अहम् आयाम यह है कि यह सृष्टि और श्रष्टा के मध्य एक संवाद है। यहाँ सृष्टि का प्रतिनिधित्व समुद्र कर रहा है।
समुद्र भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़ कर कहता है कि नाथ, मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिए। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ है । आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिस के लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किन्तु मर्यादा भी आपकी बनायी हुई है। इसके बाद समुद्र के द्वारा कथित वह विवादित अर्द्धाली आती है। यहाँ प्रताड़ित समुद्र स्वयं है, लेकिन प्रताड़ना का कारण उसका जड़ होना है जो स्वयं ईश्वर का विधान है। निश्चय ही वह पंच तत्त्वों में से एक के रूप में स्वयं की जड़ता और उस कारण से दण्डित किए जाने की बात कर रहा है । बिना प्रसंग यहाँ ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी की बात कहाँ से आ गयी, और वह भी ताड़ना के अधिकारी के रूप में? स्पष्ट रूप से समुद्र अपनी बात उपमाओं के माध्यम से रख रहा है। ये उपमाएँ क्रम से पहली चौपाई में उल्लेखित पंचभूतों के लिए प्रयुक्त हुई है । “भारतीय दर्शन में पंच तत्वों को सृष्टि का कारक माना गया है। ... यह प्रसंग ताड़ना की अपरिहार्य सहभागिता द्वारा पांच महाभूतों की स्वभावगत जड़ता को चेतनशील-क्रियाशील करने से सम्बन्धित है। चेतनावादी संत तुलसीदास ... पांच तत्त्वों को सृष्टि का मुख्य हेतु मानते हैं ... उनकी दृष्टि से ताड़ना (विक्षोभ) सृष्टि एवं जीवन की उत्पत्ति में प्रमुख हेतु हैं। ... महामनीषी तुलसीदास ने आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी नामक पंचभूतों के लिए स्वभाव, गुण और कर्म के आधार पर क्रमशः ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी नामवाची जिन प्रतीकों का प्रयोग किया है, वे सर्वथा नवीन, मौलिक व तर्कसंगत अर्थात् सम्यक् प्रकारेण (सर्वतोभावेन) प्रसंगानुकूल और प्रसंगान्तर्गत हैं।”[19]
सृष्टि के निर्माणक ये पंचतत्त्व न सिर्फ जीवन को उत्पन्न करते हैं बल्कि उनको धारण भी करते हैं लेकिन जीवन इन तत्त्वों की ताड़ना (कष्ट) पर निर्भर करता है। यही स्थिति ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी की भी है । आकाश की रिक्तता पृथ्वी को घूर्णन मार्ग प्रदान कर जीवन के हेतु तापमान, प्रकाश, वायु और जल को जीवन को सुनिश्चित करने के लिए सम्यक रूप से उपलब्ध करवाता है। दूसरी तरफ आकाश ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है जिसे जीवन का प्रमुख कारक माना गया है। ढोल रिक्तता से ध्वनि उत्पन्न करने वाला लोकप्रिय वाद्ययंत्र है जो आकाश की समुचित उपमा है। यह रिक्तता के प्रभाव का प्रदर्शन है। गँवार या ग्रामीण या कृषक तथा शूद्र अथवा श्रमिक अथवा ब्लू-कालर वर्कर क्रमशः वायु और अग्नि के समान दूसरों का भरण-पोषण करते हैं। वायु बीजों को धरती पर बिखेरता है और बादलों को लाकर उन्हें सींचता है। यह कार्य कृषकों का भी है। अग्नि जिस तरह स्वयं तप कर दूसरों के कार्य सिद्ध करता है वैसे ही श्रमिक स्वयं का पूर्णतया त्याग करते हुए दूसरों के काम आता है। जल का उपयोग मनुष्य बाँध कर करता है जिस तरह से पशु को बांधकर। पृथ्वी जननी है जो समस्त जीवन को धारण करती है। स्त्री भी प्रधान रूप से जननी है जो मानव को जन्म देती है और पोषती है। पीड़ा सहन करना पृथ्वी की भी नियति है और स्त्री की भी।[20] चूँकि समुद्र मानव रूप में ईश्वर के समक्ष स्तुति कर रहा है अतः उसके द्वारा मानव समाज की उपमाओं के द्वारा अभिव्यक्ति किया जाना स्वाभाविक है। प्रचलित समझ के विपरीत इस कथन का उक्त सुस्पष्ट अर्थ अल्पज्ञात है, जो निश्चय ही आश्चर्य का विषय है।[21]
इस प्रसंग का तीसरा और प्रायः सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष भी है जो अभी तक प्रायः अविवेचित है। इस प्रसंग में समुद्र ईश्वर के द्वारा शरसंधान और उसके महाविनाशक प्रभाव से भयातुर तो है लेकिन वास्तव में उसका कथन भयवश किया गया प्रलाप न होकर सृष्टि के विधान को स्पष्ट करता है। उसका कथन एक तरह से ईश्वर को दिया गया उलाहना है। वह कहता है कि पंचभूतों की जड़ प्रकृति ईश्वरीय विधान है और इसलिए मात्र जड़ता के आधार पर उसे दण्डित किया जाना उचित नहीं है। यहाँ ध्यातव्य है कि ईश्वर सृष्टि के रचयिता हैं और आपने स्वयं उसका विधान दिया है। समुद्र उसी तथ्य की और संकेत करता है। वह परमेश्वर से प्रश्न करता है कि क्या उसकी नियत मर्यादा परिवर्तनीय है? प्रभु उसकी बातों से सहमत होते हैं। अवतार का उद्देश्य ही मानवों के मध्य ईश्वरीय विधान या आदर्श विधान को स्पष्ट करना है। ऐसा नहीं है कि त्रिकालदर्शी श्रीराम समुद्र के तर्कों से परिचित नहीं है जिसका भान आपको समुद्र के द्वारा करवाया गया है। प्रभु ईश्वरीय व्यवस्था को लीलाओं के माध्यम से उजागर करते हैं।
यहाँ पंचभूतों को लेकर ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी की उपमाओं का प्रयोग सोद्देश्य है और अत्यंत सारगर्भित है। यह वास्तव में रामचरितमानस महाकाव्य के महती सामाजिक सरोकारों को प्रदर्शित करता है। जिस तरह से पंचभूत जीवन के निर्माणक और पोषक तत्व हैं वैसे ही ये पाँच सभ्यता के निर्माणक तथा पोषक हैं। इस सन्दर्भ में ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी की उपमाएँ उनके द्वारा समाजिक जीवन में आधारभूत योगदान और उनके द्वारा सही जाने वाली पीड़ा को रेखांकित करती हैं। समुद्र के कथन से प्रकटतया पंचभूतों के स्थायी रूप से प्रताड़ित होने की बात सामने नहीं आती है। वह तात्कालिक रूप से मात्र ईश्वर के कोपभाजन बनने की सम्भावना से व्यग्र है लेकिन वह अपनी उक्ति के माध्यम से समाज के निर्माणक और पोषक ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी के स्थायी उत्पीड़न की ओर संकेत कर जाता है। समुद्र का यह कथन वास्तव में कवि के द्वारा ईश्वर से न्याय की विनती है और दूसरी तरफ समाज से सामाजिक न्याय की स्थापना का आह्वान और मानवीय संवेदना को जगाने का प्रयास है।
समाज की संरचना एवं कार्यशीलता में वाद्ययंत्र के रूप में ढोल सांस्कृतिक पक्ष और पशु मानवेतर जीवों की भूमिका को चिह्नित करता है। गोस्वामी इस अर्द्धाली के माध्यम से पर्यावरण, कृषकों, श्रमिकों, मानवेतर जीव-जंतुओं और स्त्रियों का सामाजिक जीवन की कार्यशीलता में अहम् योगदान को रेखांकित करते हुए उनकी पीड़ा को उजागर करते हैं। समाज में कृषकों, श्रमिकों, पशुओं तथा स्त्रियों की भूमिका तो स्पष्ट है लेकिन सामाजिक सन्दर्भ में ढोलक की उपमा जटिल है। यह सामाजिक प्रक्रियाओं के अमूर्त पक्ष को प्रदर्शित करता है, जो स्पष्ट रूप से सांस्कृतिक पक्ष है। ढोलक एक ऐसा वाद्ययंत्र है जिसका वादन जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी संस्कारों, धार्मिक अनुष्ठानों और उत्सवों पर होता है। ढोलक से बेहतर संस्कृति का प्रतीक चिह्न और कुछ नहीं हो सकता है। संस्कृति को, अति संक्षेप में, जीने के ढंग के रूप में समझा जा सकता है। यहाँ इस तथ्य को रेखांकित करने की आवश्यकता है कि संस्कृति और प्रकृति के मध्य गहन अन्तर-सम्बन्ध है। संस्कृति का पोषण प्रकृति पर निर्भर है। ढोलक भी लकड़ी, चर्म और धातु के प्रयोग से बनता है। संस्कृति प्राकृतिक तत्वों के उपयोग की कला और विज्ञान के आधार पर निर्मित होती है। यहाँ पीड़िता प्रकृति है। सृष्टि में जो भूमिका आकाश की है वह सभ्यता के सन्दर्भ में पारिस्थितिकी की है।
आज पारिस्थितिकीय असंतुलन मानव के समक्ष एक गम्भीर संकट और चुनौती है। वैश्विक स्तर पर इस समस्या का कारण विभिन्न सभ्यताओं का प्रकृति को लेकर दृष्टिकोण है। ईसाई पंथ, जो विश्व सभ्यता का प्रधान पंथ है, प्रकृति को मानवों के उपयोग का साधन मात्र मानता है। इसके प्रभाव में विश्व की तमाम सभ्यताएँ प्रकृति को संसाधन मात्र के रूप में देखने लगी। इसमें जड़-चेतन का भी भेद नहीं किया गया। “ईसाई धर्म ने मानवता को प्रकृति से दूर कर दिया है। जैसा कि लोग ईश्वर को भौतिक जगत से पृथक एक अद्वितीय परम समझने लगे, वे प्रकृति के प्रति श्रद्धा खो बैठे। ईसाई की दृष्टि में भौतिक जगत शैतान का कार्यक्षेत्र है। समाज जो एक समय मौसमी त्योहारों के रूप में प्रकृति-पूजा करता था वह बाइबिल-संबंधी घटनाओं को उत्सवों के रूप में आयोजित करने लगा जिनका धरती से कोई जुड़ाव नहीं था।... प्रकृति और ईश्वर के कथित पृथक्करण ने पशुओं के प्रति व्यवहार को प्रभावित किया। संतोपाधि से विभूषित तेरहवीं सदी के विद्वान टॉमस अक्वीनस ने घोषणा की कि पशुओं का मरणोत्तर जीवन नहीं होता है, कोई प्राकृतिक अधिकार नहीं होता है और कि ‘स्रष्टा ने एक महान्यायपूर्ण विधान के द्वारा उनका जीवन और उनकी मृत्यु दोनों ही हमारे उपयोग के निमित्त कर दी है।"[22] गिरजा ने वृक्षों और झरनों के प्रति श्रद्धा रखना, जहाँ लोग ज्योति जलाते थे सजावटी वस्तुएँ रखते थे, को दंडनीय बताया।[23] इस सोच से बिलकुल विपरीत भारतीय सभ्यता प्रकृति के प्रत्येक अवयव के स्वायत्त अस्तित्व और उसकी मर्यादा को पहचान देता है।
यहाँ एक प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है जिसपर चर्चा आवश्यक हैं। क्या पंचभूतों की तरह ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी जड़ हैं? क्या ये चेतनाशून्य हैं? निश्चय ही नहीं। सनातन परम्परा तो संवेदना को लेकर जड़-चेतन में भी भेद नहीं करता है जो स्पष्टतया गोस्वामी की रचनाओं से भी परिलक्षित है। यह अवश्य है कि पंचभूतों की तरह समाज के निर्माण और पोषण में इनका योगदान आधारभूत होने के साथ अतिकष्टसाध्य भी है। समाज की गलती इनके महती योगदान को सम्मान देने, उनके प्रति निरंतर कृतज्ञ रहने और इनकी पीड़ा का समुचित प्रतिदान देने के स्थान पर इनके साथ ऐसा व्यवहार करना है मानों ये जड़ हों। यह ईश्वरीय विधान नहीं होकर सामाजिक षड्यंत्र है। इस तरह की सोच और व्यवहार स्वभावतः सरल, परहितकारी और परिश्रमी जीवों और जनों के दोहन और दमन की योजना का परिणाम है। इस योजना की भुक्तभोगियों में से प्रकृति भी एक है।
कवि जड़ तत्त्वों के उपमा के रूप में इन पाँचों की जड़ता की स्थिति को समाज के समक्ष आत्मावलोकन के लिए रखते हैं। इनके कार्य अवश्य ही कष्टों को सचेष्ट सहन करने की पराकाष्ठा होती है। इसकी सीमा जड़ तत्त्वों की क्षमता ही हो सकती है। इनके योगदान की अपरिहार्यता के कारण समाज का उनके प्रति कृतज्ञता और अवदान भी उसी अनुपात में होनी चाहिए थी लेकिन होता बिलकुल उलट है। प्रतिदान और सम्मान के स्थान पर उन्हें प्रताड़ना और शोषण का शिकार बनना पड़ता है। यहाँ ध्यातव्य है कि समाज की समस्त सम्पदा, इसकी सभ्यता और संस्कृति और सबसे ऊपर मानव संतति इन्हीं की प्रकृति, त्याग और श्रम का प्रतिफल है लेकिन प्रभुता के बजाय उन्हें दासता की स्थिति में रखा गया है। उन्हें उनके योगदान के प्रतिफल से भी वंचित रखा जाता है। पारितंत्र, कृषक, श्रमिक, पशु और नारी का समाज क्षमता के अनुसार अधिकतम दोहन करता है लेकिन बदले में उन्हें मात्र न्यूनतम देता है और बहुधा वह भी नहीं। मानव एक तरफ पारितंत्र को उजाड़ रहा है और दूसरी तरफ जीव-जंतुओं के साथ क्रूरता का व्यवहार करता है। जीवों की प्रजातियाँ निरंतर विलुप्त हो रही हैं। कृषक और श्रमिक अपने श्रम के प्रतिफल में कभी-कभी तो इतना भी नहीं पाते कि वे अपने जीवन की रक्षा कर सके। मात्र अभाव के कारण उनमें से अनेक काल के गाल में समा जाते हैं। स्त्रियों की स्थिति तो और विकट है। उनका विषम लिंगानुपात उन क्रूर परिस्थितियों का परिणाम है जो उनमें से एक बड़े हिस्से को जीवन से ही असमय वंचित कर देता है। यह स्थिति तो आज इक्कीसवीं सदी में है। पाश्चात्य जगत की भोगवादी प्रवृत्ति की व्यापकता के कारण प्रत्येक दूसरों को मात्र उपभोग का साधन मानता है। इस प्रवृत्ति का सबसे भयंकर परिणाम प्रकृति और पशुओं को झेलना पड़ता है। उसके बाद आती हैं स्त्रियाँ और फिर सरल स्वभाव के पुरुष। मद और लिप्सा में अंधे कुटिल लोगों ने इन पांचों को ही नहीं प्रताड़ित कर रखा है बल्कि समस्त पंचभूतों को अपनी कुत्सित मनोवृत्ति और चेष्टाओं से दूषित कर दिया है। जड़ और चेतन कोई भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं है। समय की माँग जड़-चेतन सभी की गरिमा को पुनर्स्थापित करने की है। ईश्वर तो समुद्र को भी जड़ नहीं मानते हैं । आप उसके मत को स्वीकार करते हैं, अमल में लाते हैं और उसे पीड़ा पहुँचाने वाले उत्तर तट के वासियों को दण्डित भी करते हैं।[24]
रामचरितमानस का महती सन्देश है कि ईश्वरीय अभियान एक साझा अभियान है। यह किसी वर्ग विशेष का, प्रजाति विशिष्ट या मात्र भौतिकतावादी अभियान नहीं है। इसमें पशु-पक्षी, अन्त्यज वर्ग के स्त्री-पुरुष, साधु-महात्मा, देवी-देवता, प्रकृति-पराप्राकृत, मूर्त-अमूर्त आदि सभी शामिल हैं। सबसे ऊपर यह एक मानवीय अभियान है। प्रभु मानवरूप में है और परामानवीय शक्तियों का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। परमब्रह्म के लिए अवतार लेने की ही आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी, जिसकी इच्छा मात्र सृष्टि और संहार का सक्षम हेतु है। अवतार निश्चयरूप से सृष्टि की गरिमा का सम्मान है जो निश्चय ही रचना को रचियता ने ही प्रदान की है। इसका सुस्पष्ट अर्थ है प्रकृति के प्रत्येक अंश की गरिमा अनन्य है ।
प्रकृति नियमबद्ध है। इसको समझ कर प्रकृति के द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का सामना किया जा सकता है और उसका लाभ अपनी सुविधा के लिए लिया जा सकता है। विज्ञान वस्तुतः प्रकृति के नियमों को समझने की प्रक्रिया है और प्रौद्योगिकी उस ज्ञान को यंत्रो के माध्यम से उपयोग करने की विधि है। प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए प्रकृति के नियमों को समझना आवश्यक है। प्रकृति को बलात् अनुकूल नहीं बनाया जा सकता है। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन न तो प्रकृति की मर्यादा का सम्मान है और न ही मानव मर्यादा के अनुरूप है। समुद्र प्रसंग में आधारभूत विज्ञान की यह समझ अन्तर्निहित है। नल और नील दक्ष अभियंता हैं और उन्हें समुद्र बांधने का ज्ञान है। वह बिना समुद्र को नुकसान पहुँचाए राम की सेना को पार उतारने में सक्षम हैं। श्रीराम का समुद्र से उसके पार उतरने का उपाय पूछना उसके नियम को जानने की प्रक्रिया है। अन्यथा, जैसा कि ऊपर भी लिखा गया है, विधाता के रूप में श्रीराम की इच्छामात्र से सृष्टि में किसी भी प्रकार का परिवर्तन, यहाँ तक की अंत या पुनर्निर्माण संभव है। सृष्टि लेकिन ईश्वर की मर्जी से ही एक मर्यादा से युक्त है। उसकी अपना स्वायत्त अस्तित्व और नियम है जिसकी अवहेलना करना ईश्वरीय मर्यादा के भी विपरीत है। मानस का समुद्र प्रसंग इस महती तथ्य को रेखांकित करता है।
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[1] रामचरितमानस, सुन्दर काण्ड - 58 - 3.
[2] आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास, नयी दिल्ली : प्रकाशन संस्थान, संस्करण 2007, पृ. 49.
[3] “एक विचारधारा, और विचारधारा के अधिकतर अध्येता कहना चाहेंगे कि हम सभी की एक है यद्यपि अक्सर हमें इसका भान नहीं होता, प्रवृत्तियों, नैतिक दृष्टिकोणों, आनुभविक धारणाओं और यहाँ तक कि तर्किक विमर्शों और वैज्ञानिक परीक्षणों के नियमों का एक सम्पूर्ण और सुसंगत समुच्चय है।” डेविड रॉबर्टसन, द रॉटलेज डिक्शनरी अव पॉलिटिक्स, लंदन एंड न्यूयॉर्क: रॉटलेज, 2007, पृ. 232.
[4] राजीव मल्होत्रा के अनुसार भारत एक विशाल अन्तरराष्ट्रीय तंत्र के निशाने पर है जिसमें अनेक संगठन, लोग, गिरजा, सरकारी निकाय और अकादमिक समूह शामिल हैं। वे भारतीय समाज के हाशिए पर स्थित लोगों के लिए अलगाववादी अस्मिता, इतिहास और यहाँ तक कि धर्म निर्मित करने में जी-जान से जुटे हैं। राजीव मल्होत्रा व रविन्दन नीलकंदन, ब्रेकिंग इंडिया : वेस्टर्न इंटरवेंशंस इन द्रविड़ियन एंड दलित फाल्टलाइन्स, नई दिल्ली: एमेरीलिस, 2011, पृ. 12.
[5] अब्दुल बिस्मिल्लाह, “मध्यकालीन कविता की जरूरत”, सबलोग, वर्ष 6, अंक 6, जून 2014, पृ. 53.
[6] रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड - 59.
[7] वही, बालकाण्ड - 7 (ग), 7 (घ), 7 (घ) - 1.
[8] वही, अरण्यकाण्ड, 32.
[9] वही, अरण्यकाण्ड, 32 - 1.
[10] यंग इंडिया, अक्टूबर 6, 1921, पृ. 36.
[11] रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, 38 - 2.
[12] वही, अयोध्याकाण्ड,100 - 2.
[13] वही, अयोध्याकाण्ड, 192 - 3,4.
[14] वही, अरण्यकाण्ड, 34 - 2,3.
[15] रामविलास शर्मा, भारतीय सौंदर्य बोध और तुलसीदास, नयी दिल्ली: साहित्य अकादेमी, 2001, पृ. 456.
[16] रामचरितमानस, बालकाण्ड, 101 - 3.
[17] अध्यात्मरामायण, युद्धकाण्ड, तृतीय सर्ग - 76 से 78.
[18] रामचरितमानस, सुन्दर काण्ड - 58 - 1 से 4.
[19] राजकुमार सिंह, “सकल ताड़ना के अधिकारी रू एक तात्त्विक विवेचन,” तुलसी साधना, जनवरी-मार्च 2008, पृ. 38-41.
[20] इस तरह का विचार लेखक ने पहले भी अभिव्यक्त किया है। देखें, नीरज कुमार झा, “सत्याग्रह की पृष्ठभूमि तथा मानस,” तुलसी साधना, अक्टूबर-दिसंबर 2008, पृ. 85.
[21] डा राजकुमार सिंह ने ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी का पंचभूतों की उपमा के रूप में प्रयुक्त होने के विषय का गहन विवेचन किया है। इस तरह के उल्लेख या व्याख्या करने वालों में आपने रामनिरंजन पाण्डेय, स्वामी रामभद्राचार्य, वी. बी. सिंह और इस लेखक का उल्लेख किया है। देखें, तुलसी चिंतन के नूतन आयाम, नई दिल्ली: गौरव बुक्स, 2013, पृ. 45-46.
[22] हेलन एलर्बे, द डार्क साइड अव क्रिस्चियन हिस्ट्री, ऑर्लैंडो: मॉर्निंगस्टार एंड लार्क, 1995, पृ. 139-140.
[23] वही, पृ.142.
[24] रामचरितमानस, सुन्दर काण्ड - 59, 59 दृ 1,2,3.
- नीरज कुमार झा
(रचना, अंक 110, सितम्बर-अक्टूबर, 2014, पृ. 31-41 में प्रकाशित, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी का प्रकाशन )
वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत उच्च जातियों में निम्न जातियों और पुरुषों में नारी के प्रति हीन भावना कहीं न कहीं दबी रहती है। ज्यादा चतुर व्यक्ति इसे मुख पर नहीं आने देते। मगर यह भी सत्य है कि स्वभाव से मुक्त होना बड़ा कठिन है। तुलसीदास जी से भी यही हुआ। वह नारियों की वंदना करते-करते चूक ही गए और उनके वास्तविक विचार इस चौपाई के रुप में बाहर आ गए।
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