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रविवार, 13 जून 2010

टुकड़ों का शहर

 शहर बसा है टुकड़ों में 
टूटा शहर नहीं है 
शहर बना है टूटों से
रहते भी टूटे ही टुकड़ों में 
शहर की हैं परतें 
शहर उधड़ रहा है
दिख रही हैं परतें 
लेकिन एक जैसी नहीं 
परतों में रहते हैं लोग
जीते हैं परतों में 
परतदार ज़िंदगी
ख़ुद को नहीं जानते लोग
खदक रहा शहर बरसों से 
लोथड़े हो गये टुकड़े
अलग हो रहीं पपड़ियाँ 
लेकिन वे पिघलती नहीं 
घुलती नहीं  

- नीरज कुमार झा 

2 टिप्‍पणियां:

  1. सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी

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  2. जीते हैं परतों में
    परतदार ज़िंदगी
    ख़ुद को नहीं जानते लोग
    खदक रहा शहर बरसों से
    लोथड़े हो गये टुकड़े
    अलग हो रहीं पपड़ियाँ
    लेकिन वे पिघलती नहीं
    घुलती नहीं

    खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..

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