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मंगलवार, 30 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ६)

भाषा की उन्नति की अभीष्टता
सर्वप्रथम अँगरेज़ी  भाषा के महत्ता को बताने के लिये जिस आर्थिक विकास की दुहाई दी जाती है उसी पर विचार करना आवश्यक है। आर्थिक दृष्टिकोण से तो वैसे पूरा भारत ही  पिछड़ा है लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति और भी दयनीय है। उत्तर तथा पूर्व भारत का विशाल हिन्दी भाषी क्षेत्र विश्व की आबादी के प्रायः निकृष्टतम जीवनस्तर वाले लोगों का है। इस क्षेत्र को बिमारू क्षेत्र भी कहा जाता है। बिमारू शब्द बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के प्रथम अक्षरों से बना एक्रोनिम है। इसे काउबेल्ट, गोबरपट्टी, तथा हिन्दी हिंटरलैंड आदि नामों से भी जाना जाता है। कहने का अर्थ यह है कि यह क्षेत्र पिछड़ेपन का पर्याय बन चुका है। कारणों का विश्लेषण यहॉ नहीं किया जा सकता है लेकिन ऐसे लोगों की भाषा ही यदि उपादेयता न रखती हो तो इनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का महत्व वैसे ही कम हो जाता है। शिक्षा यदि गरीबी का एक उपचार है तो हिन्दी माध्यम में शिक्षित जन कम प्रभावशाली उपचार पा रहे हैं क्योंकि रोजगार तथा व्यवसाय के अधिकांश क्षेत्र उनके लिये प्रतिबंधित हैं तथा देश के उच्चतर स्थानों तक पहुँचने से वे हमेशा के लिये वंचित हैं। अँगरेज़ी का वर्चस्व उनकी नागरिकता के आधार समानता के सिद्धांत पर भी चोट करता है। यह उनके सम्मान पर आघात तथा उनके जीवन अवसरों को बाधित कर रहा है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र के वासियों के विकास के लिये आवश्यक है कि देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र में कम से कम भारती की प्रधानता स्थापित हो। समाज के पिछड़े तबको के लिए तो यह और भी आवश्यक है। उनकी कई पीढीयाँ   समुचित शिक्षा के अवसरों के अभाव में अँगरेज़ी में दक्षता प्राप्त करने में गुजर  जायेंगी। हिन्दी का विकास देश के बड़े हिस्से के आर्थिक विकास के लिये ही नहीं वरन्‌ सामाजिक न्याय के लिये भी अनिवार्य है।  भाषा का विकास आर्थिक विकास की दो पद्धतियों - लोकोन्मुखी तथा वृद्धिकेंद्रित - में से  प्रथम के लिये भी आवश्यक है। वास्तव में हिन्दी क्षेत्र में किसी तरह का व्यवसाय या रोजगार करने के लिये हिन्दी पर्याप्त ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है। कोई भी व्यवसाय या सेवा इस क्षेत्र में बिना हिन्दी के ज्ञान के सम्भव ही नहीं है। मात्र यहॉ अँगरेज़ी का हौआ बनाया गया है ताकि अभिजन अपना प्रभुत्व बनाए रख सके। संक्षेप में उपर्युक्त विवरण का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि हिन्दी भाषी लोगों के आर्थिक विकास तथा सम्मान के लिये आवश्यक है कि हिन्दी की उपादेयता तथा सम्मान को सशक्त किया जाय। इसके लिये मात्र अँगरेज़ी के मायाजाल को तोड़ने  की आवश्यकता है। अँगरेज़ी सीखना जरूरी है तो सिर्फ एक हुनर के रूप में।
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

रविवार, 7 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ५)

उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण का उद्देश्य भारत देश में ही भारती का दोयम दर्जे की भाषा के रूप में पतन को रेखांकित करना है. यह अत्यंत त्रासद विडम्बना है कि किसी देश की राष्ट्रभाषा स्वदेश में ही द्वितीयक श्रेणी की भाषा सिद्ध हो रही है. हालांकि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीयों की आंग्ल भाषा में प्रवीणता भारत की विशेषता के रूप में देखी जाती है, खासकर चीन की तुलना में. चीन से जब भी भारत की तुलना आर्थिक विकास के क्षेत्र में की जाती है तो भारत में अँगरेज़ी के प्रचलन को भारत के पक्ष में देखी जाती है. चीन भी इस कमी को दूर करने में युद्धस्तर पर लगा हुआ है. एक आकलन के अनुसार चीन में अभी छ: करोड़ लोग अँगरेज़ी का अध्ययन कर रहे हैं. ऐसा समय दूर नहीं कि जब दुनियाँ में सबसे ज़्यादा आंग्लभाषी चीन में होंगे. अँगरेज़ी सीखना आज समय की माँग है. इसे सीखना प्राय: विश्व बाज़ार में प्रतियोगी बने रहने की आवश्यकता है. अँगरेज़ी सीखना ग़लत भी नहीं है और अँगरेज़ी का विरोध तो देशवासियों के लिये अत्यंत अहितकर है, खासकर गरीब तबको के लिये. यदि अँगरेज़ी हटायी जाती है तो यह सरकारी विद्यालयों से ही हटेगी जिसकी सबसे ज़्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी. गरीबी दूर करने का यदि एक माध्यम शिक्षा है तो शिक्षा अँगरेज़ी माध्यम में इस उद्देश्य को प्राप्त करने में और भी प्रभावी होगी. यहाँ पैरोकारी जैसा कि स्पष्ट है कि अँगरेज़ी का विरोध नहीं है बल्कि भारती की प्रतिष्ठा एवं उपादेयता में विस्तार कर इसे अधिक ग्राह्य बनाने तथा एक दूरगामी लक्ष्य के रूप में इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उपायों पर विचार करना है है. लेकिन इससे पूर्व ऐसा करना क्यों आवश्यक है उसपर विचार करना समीचीन है क्योंकि जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है कि यह मात्र भावना का प्रश्न नहीं है.
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

शनिवार, 6 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ४)

चिंता तथा चिन्तन का विषय

प्राय: प्रत्येक हिन्दीभाषी हिन्दी को एक विश्वभाषा के रूप में देखना चाहता है लेकिन स्थिति  यह है कि भारत  के हिन्दी  क्षेत्र में ही यह भाषा अपनी अस्मिता  की रक्षा के लिये संघर्षरत है. इसकी उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लग चुका है. यही कारण  है कि विपन्न वर्ग के जन भी  अत्यंत  त्याग  कर अपने बच्चों को अँगरेज़ी   माध्यम में शिक्षा दिलवाते  हैं. विकल्पहीनता  की स्थिति में कोई भी अपने पालितों को हिन्दी  माध्यम के विद्यालय में भेजता  है. आज की अर्थव्यवस्था में अँगरेज़ी का बोलबाला तो  निर्विवाद है.  कृषि,  लघु उद्यम, श्रम को छोड़ दें तो एक छोटी सी नौकरी पाने के लिये भी  अँगरेज़ी का ज्ञान अनिवार्य योग्यता का हिस्सा हो चुका है. प्रबंध की भाषा तो अँगरेज़ी है ही. अगर लोगों की मनोस्थिति को मापदंड माने तो हिन्दी एक भाषा के रूप में सम्मान तथा  उपादेय्या निश्चित तौर पर समाप्त हो चुकी है.  इसका अस्तित्व महज मजबूरी या आनुष्ठानिक है.  जहाँ  भारत का  मध्यवर्ग  अँगरेज़ी  को अपनाने की पुरज़ोर  कोशिश कर रहा है  वहीं  भारतीय  अभिजन में तो यह घरेलू बोलचाल की भी भाषा नहीं रह गयी है. सिर्फ़ राजनी्विक अभिजन का एक छोटा  हिस्सा अपवाद हो सकता है. यहाँ तक कि हिन्दी फिल्मों के अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ, जो हिन्दी में  लच्छेदार  संवाद बोलते नज़र आते हैं, अपनी निजी तथा सामाजिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करना अपना तौहीन मानते हैं. यह विचार की भाषा तो रह ही नहीं गयी है.  अच्छे शोध, अच्छे विचार तथा शायद अच्छे साहित्य के लिये भी हिन्दी भाषी अँगरेज़ी भाषा पर निर्भर करते हैं. साहित्य में तो भले ही इस भाषा की महत्ता को कमतर  आँकना उचित  नहीं हो लेकिन मानविकी को छोड़ दें तो  समाज, प्राकृतिक  तथा भौतिक विज्ञानों में इस भाषा का प्रयोग श्रेष्ठ संस्थानों में अपवाद  स्वरूप ही होता है. तकनीक या प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण, जिसका उद्देश्य मात्र विज्ञान को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान  करना है में भी भारती का प्रयोग नहीं के बराबर है. जिन लोगों ने हिन्दी को अपने शोध या सृजन का  माध्यम बनाया हुआ है वे सामान्यतया  अँगरेज़ी के प्रयोग में असमर्थ हैं. हिन्दी  भाषी राज्यों के प्रशासन में अँगरेज़ी के प्रयोग को नीति के अंतर्गत हतोत्साहित किया जा्वा है लेकिन उसके बावजूद निहायत ही देसी किस्म के, आंचलिक शिक्षण संस्थानों  में पढ़े बड़े, मझोले और यहाँ तक की छोटे मेजतंत्रीगण  (ब्यूरोक्रैट्स) भी मिली जुली तथा टूटी फूटी ही सही, अँगरेज़ी  के उपयोग को अपने साहबीयत  का अभिन्न हिस्सा मानते  हैं. यहाँ तक कि संसद में भी हिन्दी  क्षेत्र के जनप्रतिनिधि  भी यदि  बोलने की स्थिति में हैं तो अँगरेज़ी ही बोलते  हैं. बक़ौल  उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा अध्यक्ष श्री भैरों सिंह शेखावत, संसद में सांसद हिन्दी बोलने से कतराते हैं या यदि बोलते हैं तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाता है (टाइम्स अव इंडिया, पटना, ३१ मई २००५). उच्च्वर न्यायालयों में तो  हिन्दी को अभी तक अपनाया भी नहीं गया है. 
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ३)

उदारवादी  वैश्वीकरण के अंतर्गत भारतीय संस्कृति के अस्मिता को लेकर खतरों को रेखांकित करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उदारवाद या वैश्वीकरण भारत या भारतीय संस्कृति के  लिये अहितकर हैं. वास्तव में  भारतीय संस्कृति के अवमूल्यन का कारण आज़ादी के बाद उदारवाद से विमुख होना था. स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मेजतंत्रीय समाजवाद को अर्थनीति का आधार बनाया गया. आशा के विपरीत लेकिन इस व्यवस्था  के अनुरूप  इसके अंतर्गत विकास की गति अत्यंत शिथिल रही. इस काल में न सिर्फ भारतीयों की उद्यमिता  दमित रही बल्कि उनकी सर्जनात्मक  क्षमताओं का भी क्षरण हुआ. यह भारतीय इतिहास का सबसे विभ्रमकारी  युग था  जिसमें निहित  स्वार्थों के द्वारा अनधीनता  के नाम पर दासता, विकास के नाम पर विपन्नता और ज्ञान के नाम पर प्रचार परोसा गया. हालांकि इस व्यवस्था की कमजोरियों ने ही भारत  में उदारवाद  का मार्ग प्रशस्त किया लेकिन आज भी उदारवाद भारत के  मध्यवर्ग में एक घृणित शब्द है, खासकर भाषा तथा साहित्य के पुरोधाओं  के मध्य. उदारवाद अपनी असीमित क्षमता के आधार  पर भारतीयों के मध्य सम्बल बन उपस्थित है और इसके लाभ बेहतर  विकास दर और घटती गरीबी के रूप में स्पष्ट हैं. फ़िर भी उदारवाद  को कम ही सराहा जाता  है. इसमें निश्चित रूप  से निहित स्वार्थों की भूमिका है लेकिन ज़्यादा बड़ा कारण शिक्षा के नाम पर प्रचार के शिकार लोगों की मानसिकता  का है. आर्थिक विकास के द्वारा ही भाषा, तथा संस्कृति भी, सुरक्षित रखी  जा सकती  है. विपन्नता  की स्थिति में संस्कृति कभी भी फल-फूल नहीं सकती  है. उदारवाद तथा वैश्वीकरण भारत को अवसर प्रदान कर रहा है कि भारत अपनी काबिलियत विश्व में साबित करे. कई भारतीय उद्यमी ऐसा कर भी रहे हैं. आवश्यकता उन अवसरों के विस्तार की है जिससे जन-जन में छिपी उद्यमिता तथा सृजनात्मक क्षमताएँ  विकसित हो सके. जरूरत  है भारत को विश्व पूँजी व्यवस्था में अपनी उचित  स्थान बनाने की ताकि अन्य देशों के लोग भारती सीखकर गर्वान्वित हों और भारतीयों की सेवा में रत हों जैसाकि आज भारतीय अन्य लोगों के लिये कर रहे हैं.

नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के  मईअगस्त २००६ अंक  में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

बुधवार, 3 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग २)

उदारवादी वैश्वीकरण के इस दौर में इस वैश्विक संस्कृति का निरंतर विस्तार हो रहा है. वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों को लेकर मतभेद हो सकता है लेकिन विभिन्न संस्कृतियों पर इसके विघटनात्मक तथा विलयनकारी  प्रभावों को नकारना असम्भव है. भारत की संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति के  प्रभावों के नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों ही पहलू हैं लेकिन जो चिंता का कारण है वह भारत की धूमिल हो रही सांस्कृतिक अस्मिता है. भारत का आभिजात्य वर्ग विदेशी संस्कृति को तेजी से अपना रहा है तथा उनके सांस्कृतिक  आदर्शों में पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्य शुमार हो रहे हैं. प्रवृत्ति भारतीयता में संशोधन या सुधार की नहीं है बल्कि पश्चिमी मूल्यों का अंधानुकरण है. भारत में  पुनर्जागरण काल में भी पश्चिमी मूल्यों से प्रेरणा ली गयी थी लेकिन भारतीय मूल्यों को नकार कर नहीं. यहाँ जो विषय विचारणीय है वह  संस्कृति से जुड़ा  सबसे बड़ा और पहला मुद्दा है. यह मुद्दा भाषा का है. भाषा किसी भी सभ्यता या समाज की संस्कृति की  वाहिका हो्ती है. आज इस वैश्वीकराण के दौर में विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भारती का भी भविष्य शोचनीय है. इस एकीकृत विश्व की भाषा अँगरेजी है. यह अंतरराष्टीय वाणिज्य की भाषा है, विश्व पूँजी की भाषा है. यह विश्व को नियंत्रित करने वाली राजनीति की भाषा है. उदारवादी  वैश्वीकरण के इस दौर  में अँगरेज़ी भाषाई एवं सांस्कृतिक ब्रह्मांड  का अंधगह्वर (ब्लैक होल) बन चुका है जिसके विनाशक आकर्षण का प्रभाव विश्व की तमाम भाषाओं एवं संस्कृतियों पर स्पष्ट अनुभव किया जा सकता  है. इसका प्रमाण अँगरेजी का निरंतर विस्तार एवं तेजी से विलुप्त  हो्ती विश्व की कमज़ोर और  छोटी भाषाएँ हैं. दुनियाँ में आज जहाँ सौ करोड़  से ज़्यादा लोग द्वितीयक भाषा के रूप में अँगरेज़ी का उपयोग कर रहे हैं वहीं बड़ी संख्या में भाषाएँ निरंतर विलुप्त हो रही हैं. कालांतर में विश्व की अनेक महत्वपूर्ण भाषाएँ, और संस्कृतियाँ भी, बिना किसी निशान, धरोहर या उत्तराधिकार के अँगरेज़ी के इस अंधगह्वर में विलीन हो जायेंगी. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के भविष्य की ऐसी सम्भावना भी त्रासद है हालांकि भारती  जैसी बहुभाषी भाषा के लिये इस तरह का विलुप्तीकरण तो प्राय: सम्भव नहीं है लेकिन इसके पतन के लक्षण स्पष्ट हैं. वास्तव में भारती का वर्तमान भी कम चिंताजनक स्थिति में नहीं है. हिंग्लिश का आंग्ल भाषा का सर्वाधिक भाषी स्वरूप होने की दिशा में बढ़ना भारती का अँगरेज़ी में विलयन की प्रकिया का लक्षण हो सकता है. आज विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ब्रिटेन के बाद सबसे ज़्यदा  अँगरेजी बोलने वाली आबादी भारत में रहती है.

- नीरज कुमार झा 
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के  मई- अगस्त २००६ अंक  में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश