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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

महान

जो आज बड़े माने जाते हैं
उनसे मुझे परहेज है
महान तो दूर 
मैं उन्हें बड़ा भी नहीं मानता हूँ 
उदाहरण के लिये पर्दे की दुनियॉ वाले
मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते
पर्दे पर दिखने वाले फसाने
मुझे नहीं लुभाते 
समाज को देखने के लिए
मेरे पास हैं बेहतर माध्यम
और मनोरंजन के लिए है
मेरा स्वयं का कल्पना संसार
और मेरे मन का पटल
दूसरे की कल्पना खरीदने की नहीं मुझे दरकार
नकल की कला में कोई कितना भी रखे महारत
खोटा सिक्का जैसे सबके लिए
वैसे ही मेरे लिए लोग नक़ल की दुनियाँ  के 
महान मानना ही हो तो मैं मानूंगा
नुक्कड़ों पर नाटक खेलने वाले को 
या दूसरे तमाशेबाजों को
जो हमारी तालियों पर 
कृतज्ञता से हैं सर झुकाते
खिलाड़ियों को फिर भी मैं मानता महान 
गेंदों, बल्लों आदि के करतब
कूद-फांद की असाधारण क्षमता
की करता मैं भी सराहना
लेकिन उनकी महानता क्षुद्र है मेरे लिए
जलती धूप और जमा देने वाली ठंड में 
काम करने वाले मजदूरों की महानता के सामने
घर-घर में काम करने वाली महिलाएँ 
सड़कों और भूमिगत नालों को साफ करने वाले कर्मी
मन से रूग्णों की सेवा करने वाली अस्पतालों की बहनें
असली सम्मान के अधिकारी हैं मेरे लिए 
मुझे नहीं शक 
स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की महानता पर 
उनका त्याग और बलिदान है स्तुत्य
उनका साहस है प्रणम्य
जान को हथेली पर रख कर लड़ने वाले वीर सिपाही
उनके बड़प्पन पर हो नहीं सकता किसी को ऐतराज
लेकिन नहीं किसी तरह से महान 
मेरे लिए राजनेता और अधिकारी
उनमें भी हैं मानवता के सेवी
हो सम्मान उनका
काम करने के लिये बनकर अपवाद 
मैं भी मानता हूँ 
लेकिन एक तो  सेवा ही है उनका रोजगार
और दूसरा शोहरत, ईज्जत और सुविधाएँ जो  उन्हें मिलती हैं
उन्हें नहीं रहने देती महान
मेरी नजरों में
जान को खतरे में डालकर सच के लिए लड़ने वाले समाजसेवी व पत्रकार 
और स्वहित को छोड़कर समाजहित में सोचने वाले सुधी
निश्चित रूप से हैं महान मेरे लिए
महान लेकिन महान नहीं शुमार होने वाले और भी हैं
महान नहीं लेकिन महान शुमार होने वाले और भी कई हैं
लेकिन मैं अंत करता हूँ नमन करके
मित्रता की उस नि:स्वार्थ भावना को 
जो महान बनाती मेरे मित्रों को 
मेरी नजरों में

- नीरज कुमार झा 

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

भारती का भविष्य (भाग १)


भारती से यहॉ आशय हिन्दी भाषा से है। इस भाषा को व्यापक बनाने तथा राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाने के लिये भारती नाम का प्रयोग ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट सन्देश जाता है कि भारती भारत की भाषा है। हिन्दी नाम से कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग इस भाषा को धार्मिक मतावलम्बन या क्षेत्रीयता के संदर्भ में देखते है । भारती नाम ऐसे निराधार धारणाओं को दूर करने में सहायक हो सकता है। इस नाम से इसके व्यापकीकरण तथा इसे भारत के सम्पर्क भाषा के रूप में प्रभावी तौर से स्थापित करने में भी काफी सहायता मिल सकती है । गॉधीजी समेत अनेक नेताओं ने अपेक्षा की थी कि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की अभिव्यक्तियों को अंगीकार कर समग्र भारत में बोधगम्य होगी तथा यह भारत की राजभाषा मात्र न रहकर भारत की एकता तथा राष्ट्रीयता की भाषा हो सकेगी। भारती नाम इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी सकारात्मक होगा। वैसे भी, संस्कृत, जो विश्व की महानतम तथा ऐतिहासिक भाषाओं में से एक है, के मूल की अग्रणी भाषा हिन्दी, जो भारतीय राष्ट्रवाद की आकांक्षाओं का भी प्रतीक है, के लिये प्रयुक्त संज्ञा तत्सम/देशज ही होनी चाहिए। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस आलेख में, जिसमें इस भाषा के वर्तमान के अधार पर इसके भविष्य को लेकर कुछेक अप्रिय सम्भानाओं पर चिंताएँ प्रगट की गयी हैं तथा उन चिंताओं के निवारण हेतु कुछेक विचार भी प्रस्तावित किये गये हैं, हिन्दी के लिये भारती शब्द का ही प्रयोग यथासम्भव किया गया है।

भाषा की स्थिति का समकालीन सन्दर्भ

विश्व पटल पर भारत की प्रभावशाली पहचान है तथा भारत का उज्ज्वल भविष्य, सम्पन्न तथा शक्तिशाली देश के रूप में, स्वप्न नहीं वरन् उपलब्धनीय सत्य प्रतीत हो रहा है। लेकिन इस सत्य का भयावह नकारात्मक पहलू भी है। इस सत्य का मूल्य सम्भवतः भारत की अस्मिता है तथा निश्चित रूप से इसकी अस्मिता की प्रतिष्ठा है। पूरे विश्व को एक समष्टि के रूप में लें तो इसकी अपनी आर्थिक व राजनीतिक संरचनाएँ हैं जो अपने निर्माणकों से काफी हद तक स्वतंत्र हैं। लेकिन इसकी संस्कृति सर्वाधिक शक्तिशाली सदस्यों की संस्कृति से ज्यादा भिन्न नहीं है। ऐसा होना स्वाभविक है। हालॉकि भारत इस संस्कृति एवं व्यवस्था का अंग है लेकिन उसमें इसकी हिस्सेदारी मामूली है। भारत इस व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है तथा वैश्विक संस्कृति पर इसके प्रभाव का भी अनुभव किया जा सकता है लेकिन वह प्रभाव गौण है। भारत इस व्यवस्था में समाहित होने का प्रयास कर रहा है लेकिन वह इसका निर्माणक नहीं है। 

विश्व व्यवस्था में भारत का समकालीन उद्भव भी भ्रामक है। इसमें काफी हद तक विदेशी पूँजी का हाथ है, खासकर व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यसाधन (बी.पी.ओ.) का जिसकी वजह से भारत विश्व पूँजीव्यवस्था का फ्श्च-कार्यालय बनने का स्वप्न देख रहा है। वास्तव में भारत भूमि विश्व पूँजी व्यवस्था की कार्य-स्थली बन रही है जिसमें भारतीय अभ्यर्थी, श्रमिक, क्षुद्रसेवी, लिपिक तथा आश्रित उपोद्यमियों की भूमिका निभाने जा रहे हैं। भारत की अति दरिद्रता के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की उन्नति भी तोष का विषय हो सकता है लेकिन मान का नहीं । 

- नीरज कुमार झा 

(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

चिट्ठाकारी : परिवर्तन का महती मंच

  • ब्लॉगिंग या चिट्ठाकारी सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा प्रदत्त ऐसा  मंच है जो देश और दुनियाँ को बदलने की अभूतपूर्व क्षमता रखता है. यह बिलकुल सहज, सुगम और सबसे बड़ी बात लोकतान्त्रिक मंच है. यहाँ लेखक ही प्रकाशक है और तत्क्षण अन्य लोगों को अपनी सृजनात्मकता से अवगत करा सकता है. समानता पर आधारित संवाद का यह मंच समस्त मानवता को एक साथ उपलब्ध है. यह भातृत्व का तथा बिना किसी मध्यस्थ या मठाधीश के प्रत्यक्ष कथन और प्रदर्शन का माध्यम है. दूसरे शब्दों में, यह संप्रभु अभिव्यक्तियों का मंच है. यह अभिव्यक्ति के अधिकार की पराकाष्ठा है.
  • अभी इस माध्यम को उस गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है जिसका यह हकदार है. पहला कारण तो इसका नयापन है. दूसरा, यह जमे-जमाये किलादारों के वर्चस्व को चुनौती देता है और इसलिए वे इसे नकारने की कोशिश कर रहे हैं. वह समय दूर नहीं कि इन समस्त माध्यमों का एकीकरण होगा जिसमें अभिव्यक्ति की इस विधा की प्रधानता तय है. 
  • यह मंच हमें वह हथियार भी देता है जिससे हम उन  लोकविरोधी ताक़तों का प्रतिकार कर सकते हैं जो जनमत निर्माण के अभिकरणों पर धन और शक्ति के द्वारा काबिज हैं. मेरा विश्वास है कि यह मंच  क्षुद्र लोगों के महिमामंडन को भी रोकेगा और मानवता  की गरिमा को बहाल कर सामान्य जन को सशक्त बनाएगा. मेरी यह अपेक्षा है कि तमाम शिक्षित और सुधी जन इस मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करें. 
  • यह मंच हमें सर्वव्यापक अभिव्यक्ति का मंच देता है. यह हमें अवसर  देता है जिसके लिये आज तक की  तमाम पीढ़ियों के लोग तरसते रहे. अब हम इस मंच का उपयोग करें और भरपूर करें, मगर सावधानी से करें. यह सुविधा हमारे दायित्व का भी उसी अनुपात में विस्तार करती है. अभिव्यक्ति के उचित अधिकारी बनने के लिये हमें गाम्भीर्य, सभ्यता और सबसे ऊपर ज्ञान से युक्त होना होगा. 
  • मैं इस बात को स्वीकार करूंगा कि मैंने  लोगों के चिट्ठों  पर ऐसी पंक्तियाँ पढ़ी जिनसे मेरे सोचने की पूरी धारा ही बदल गयी. यह ज्ञानार्जन और संवेदना के परिष्कार का अद्भुद साधन है. ज्ञान और संवेदना अन्योन्याश्रित हैं और ज्ञान की कमी ही हमें असंवेदनशील बनाती है और संवेदनशीलता ही हमें ज्ञान की तरफ़ प्रेरित करती है. हम सब एक-दूसरे के परिष्कार के लिये और बेहतर ढंग से प्रयत्नशील हों, इसी भावना के साथ सादर. 
- नीरज कुमार झा 

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

क्यों नहीं ....



कर्ज है हमारे  ऊपर
पुरानी पीढ़ियों का। 
अधिकतर पीढ़ियों ने
दी है बेहतर दुनियाँ
आने वाली पीढ़ियों को। 
गौर करें हम भी
अपनी विरासतों पर। 
वैसे यह बात नहीं है
सिर्फ़ नैतिकता की;
है यह बात
स्वार्थ की भी। 
अधिकतर लोग जोड़ते  हैं
ज़मीन और ज़ायदाद
औलादों के लिये।  
वे नहीं सोचते कि
आखिर वे रहेंगे कहाँ। 
समाज में ही तो !
क्यों नहीं वे कोशिश करते
उसी शिद्दत से
छोड़ने को एक बेहतर समाज
अपने बच्चों के लिये?

- नीरज कुमार झा

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

बिहार में चुनाव

पांच साल पहले बिहार को  डेढ़ दशकों के अंधकार युग से छुटकारा मिला था. अब पुनः बिहार के समक्ष परीक्षा की घड़ी आ गयी है.  इन पांच वर्षों में बिहार की छवि सुधरी है और बिहार की स्थिति में  सुधार भी आया है लेकिन साथ ही यह समझना जरूरी है कि इस अवधि में भी पुरानी व्यवस्था ही कार्यशील रही है. इस दौर में बिहार पतन के गर्त्त से बाहर निकला लेकिन यह परिवर्तन  किसी नई सोच का परिणाम नहीं है. यह पुरानी व्यवस्था को ही ठीक से चलाने का एक अच्छा प्रयास था. बिहार की आवश्यकता नवीन सोच को लाने की है. नयी व्यवस्था की आवश्यकता को समझने  के लिये हमें विश्व में हो रहे परिवर्तनों को समझना होगा. इस वैश्वीकरण के दौर में  समाज को सरकारी सहायता से चलने के बजाय अपने पैरों पर चलना सीखना जरूरी है. समाज रूढ़ियों, दकियानूसी और व्यवस्था की जंजीरों से अनधीन हो प्रत्येक व्यक्ति को अपना रास्ता ख़ुद तय करने दे और उसे उन बुलंदियों को हासिल करने दे जिसके वह काबिल है. शासन की भूमिका मात्र समाज के सहायक की होनी चाहिए. जनतांत्रिक व्यवस्था में यही विकास का मार्ग हो सकता है.  

इस चुनाव में बिहार के शिक्षित और सुधी नागरिकों के लिये निर्णय लेना आसान नहीं होगा. पिछले चुनाव में उनका ध्येय साफ़ था - पंद्रह साल के जंगल राज का सफाया. अब चुनौती  दुहरी है. पहली तो यह कि जंगल राज की वापसी रोकनी है. दूसरी चुनौती है शासन की गुणवत्ता में सुधार. अब लोगों को हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों की योग्यता और उनकी पृष्ठभूमि को ध्यान  में रखना होगा. हर व्यक्ति को इस बात के लिये सजग होना होगा कि राजनीति के अति दूषित क्षेत्र में  उपलब्ध उम्मीदवारों में जो सबसे कम बुरा हो उसे अपना समर्थन दें बिना इस बात को ध्यान दिए  कि वह जीत सकता है  या नहीं. पहला मानदंड है कि ग़लत दल को समर्थन नहीं देना है  और दूसरा कि सही दल के गलत उम्मीदवार को भी मत नहीं देना है. हमारा मत भले ही उम्मीवार की जीत में न बदले लेकिन हमारा मत हमारी हार में तो किसी भी स्थिति में नहीं बदलनी चाहिए. बिहार के उदारवादी नागरिकों को, जो  जात-जमात तथा अन्य संकीर्ण सोच और स्वार्थ से हटकर सोच सकते हैं, इस बार मतदान करने से न चूकना चाहिए और न ही चुनावी प्रक्रिया से उदासीन रहना चाहिए. उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि  असामाजिक तत्व तथा संकीर्ण सोच के लोग अपनी कुत्सित मानसिकता के साथ  जनतांत्रिक प्रक्रिया में ज्यादा सक्रिय हैं. 

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

सेकुलरवाद का संकट

नीरज कुमार झा 

धर्म धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना और रिलिजन लैटिन रेलिगेअर से उत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ है चीजों को इकट्‌ठा करना या एक ही जमीन पर से बार-बार गुजरना। सानान्य धारणा के विपरीत धर्म तथा रिलिजन का अभिप्राय एक ही है -  जमीन से जुड़ी सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना लेकिन भारत में जहॉ बहुदेववाद, अनेक उपासना पद्धति तथा भिन्न आध्यात्मिक दर्शन की परम्परा रही है वहीं पश्चिम में एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक सर्वोच्च धर्माधिकारी रिलिजन को ठोस स्वरूप प्रदान करते  थे। इसका कारण भी जमीन से जुड़ा  है। यूरोप में जमीन पर कृषकों के स्थान पर सामंतों तथा पादरियों का स्वामित्व था और सामंतवाद की व्यवस्था पदसोपानात्मक थी, अर्थात्  छोटे सामंत के ऊपर बड़ा   सामंत और उससे ऊपर उससे बड़ा सामंत और सबसे ऊपर राजा और राजा से ऊपर पोप। जमीन पर काम करने वालों को सर्फ कहा जाता था जो जमीन के हिस्से माने जाते थे अर्थात जमीन से जुड़े  जन जो बंधुआ मजदूरों की तरह थे। ये सर्फ यूरोपीय आबादी में बहुसंख्यक थे। जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि धर्म सर्वसामान्य का अफीम है तो यूरोप में जिस तरह का शोषण था उसको देखते हुए इस अफीम की वहाँ  ज़्यादा जरूरत थी जिसके परिणामस्वरूप वहॉ समरूप केंद्रीकृत धार्मिक सत्ता बलवती रही । भारत में इसके विपरीत किसानों की स्वायत्त जीवन शैली, जमीन पर उनका स्वामित्व तथा उनकी बड़ी संख्या किसी एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक परम धर्माधिकारी की व्यवस्था को पनपने ही नहीं दिया। इसकी वजह से ही भारत में राज्य-धर्म की अवधारणा उत्पन्न भी नहीं हो पायी।

धर्म तथा रिलिजन का यह पक्ष डा. हिमांशु राय ने अपनी पुस्तक सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी में रखा है। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर हैं और इस तरह की कई मौलिक पुस्तकों का लेखन आपने किया है। यह पुस्तक भी धर्म, रिलिजन, राजनीति तथा उनसे जुड़ी  प्रक्रियाओं की जहाँ  एक ओर आधारभूत समझ देती है वहीं दूसरी तरफ इनसे जुड़े  अनछुए पहलुओं को उजागर करती है। उन्होंने बखूबी मार्क्सवादी उपागम का प्रयोग करते हुए यह सिद्ध किया है कि साम्यवादी व्यवस्थाएँ भले  ही असंगत थीं लेकिन अध्ययन की पद्धति के रूप में मार्क्सवाद की उपादेयता बनी हुई है। हिन्दी में इस तरह के पुस्तकों का प्रकाशन कम ही हो पाता है और इस तरह की पुस्तकों  के तर्कों  को कम-से-कम समीक्षा के माध्यम से हिन्दी पाठकों के समक्ष लाना आवश्यक है। इस पुस्तक में यह रेखांकित किया गया है कि भारतीय सभ्यता में न तो राज्यधर्म की और न ही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का बोध या व्यवहार जैसी चीज थी। यह इस तरह की धारणा अंग्रेजों ने मुस्लिम आभिजात्यवर्ग के साथ मिलकर इजाद किया जिसे बाद में भारतीय उदारवादियों ने भी स्वीकारा और वामपंथियों ने समर्थन दिया। सेक्युलरिज्म की भारतीय समझ आज भी समस्यामूलक बनी हुई है।

आजकल हमारे जनतंत्र में यह मान्यता सर्वोपरि है कि विकास तथा सामाजिक न्याय की स्थापना जातीय तथा सम्प्रदायिक समूहों को आधार बनाकर किया जा सकता है। इस तरह की नीतियों का समर्थन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी करते हैं। वास्तव में यह ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को उलटना है जो शक्तिसंघर्ष में लिप्त राजनैतिकों का चलाया कुचक्र है। उदारवाद जातीय (एथनिक) या सम्प्रदायिक अस्मिता के स्थान पर व्यष्टि आधारित समाज का निर्माण करता है। यह सभी सभ्यताओं में समान उत्पादन प्रणाली के आधार पर समरूप संस्कृति का सृजन करता है। पूँजीवादी  व्यवस्था के अंतर्गत मजदूर वर्ग भी पुरातन अस्मिता आधारित नीतियों के स्थान पर सेकुलर आर्थिक हितों को तवज्जों देता है। यह भी भूला दिया जाता है कि समान सार्वजनिक कानूनों के अंतर्गत ही अल्पसंख्यकों की सुरक्षा है क्योंकि समान कानून पहले बहुसंख्यक पर अंकुश रखता है। अगर जाति और पंथ के आधार पर कानून बनाएँ जाएँ  तो यह मध्ययुगीन विभाजित समाज से आज तक की सामाजिक प्रगति को नकारना होगा। आधुनिक समाज का आधार समुदाय के स्थान पर नागरिकता पर आधारित सार्वजनिक कानून हैं।


अस्मिता की राजनीति को बहुधा पूँजीवाद का प्रतिरोध के रूप  में देखा जाता है। वास्तव में इस तरह का विरोध पूँजीवाद की  विकास यात्रा की अपूर्णता के कारण है। पूँजीवाद की पराकाष्ठा सर्वजनीन या वैश्विक समरूप संस्कृति की स्थापना है जिसके अंतर्गत इस तरह के पुरातनपंथी अस्मिताओं का विलोप हो जाएगा। खासकर पंथ के आधार पर पूँजीवाद के विरोध  के पीछे समुदाय विशेष के आभिजात्य वर्ग के पुरुषों के द्वारा अपने विशेषाधिकारों को संरक्षित करने की मंशा होती है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि प्रगतिशीलता के आवरण में अल्पसंख्यक प्रतिक्रियावाद को भारतीय वामपंथी समर्थन दे रहे हैं। वास्तव में जैसा डा. राय स्पष्ट करते हैं कि भारतीय वामपंथ की राजनीति उनके दर्शन को निर्धारित करती है न कि उनका दर्शन उनकी राजनीति को। इसी विडम्बना ने वामपंथ को भारत में मात्र एक दबाब समूह के रूप में खड़ा कर दिया है। 

यह पुस्तक समाजशास्त्र के शिक्षकों तथा छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। हालांकि यह पुस्तक लम्बे पैराग्राफ की वजह से कई जगह बोझिल हो गयी हैं । तर्कों को साररूप में अध्यायों को अंत में दिए जाने पर यह पुस्तक छात्रों के लिए और भी उपयोगी हो सकती थी। 

सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी
हिमांशु राय
नई दिल्ली, मानक प्रकाशन, २००९, रू. ४५०/-

(बी पी एन समग्र, रविवार, १५ नवम्बर २००९, पृ. २ में इसी शीर्षक के साथ प्रकाशित)