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रविवार, 27 जून 2010

गवाक्ष



अधिकार और कर्त्तव्य

हमने माँगे अपने अधिकार
उन्होंने कहा कर्त्तव्य करो
उसी से मिलेंगे अधिकार
समझ बात देर से आई
हमारे कर्त्तव्य ही हमारे अधिकार हैं
उनके अधिकार ही उनके कर्त्तव्य हैं


- नीरज कुमार झा

शनिवार, 19 जून 2010

दिन वह जल्दी आने वाला है

 दिन वह जल्दी आने वाला है
जब न होंगी सीमाएँ
और न होंगी सेनाएँ 
टूटेंगी दीवारें मानवता के बीच 
दरकिनार होंगे लोग वे 
सधते हैं हित जिनके 
मानवता के बटे होने से 
नहीं होगा उद्योग सबसे बड़ा 
हत्या और नरसंहार के  औजारों का
रुकेंगे प्रशिक्षण हिंसा और ध्वंस के 
दुनियाँ चल चुकी है उस ओर 
संपर्क और आवाजाही 
व्यवहार एवं व्यापार 
तथा नई तकनीकों से
बढ़ती निकटता 
ला रही घनिष्टता अपूर्व 
मानवता के सरोकार और खतरे 
भी हो रहें हैं एक
दकियानूसी पीछे छूट रही है 
सोच नई पनप रही है 
मानवता हो रही एक इकाई
खेमें  रहेंगे तो भी नहीं खेले जाएंगे खूनी खेल 
रहेंगी अस्मिताएँ भी अनेक
पर होंगी वे प्रतिबिम्ब मात्र 
बहुरंगी संस्कृतियों के 
लोग एक दूसरे को समझ रहे हैं
गुमराह करते विचार 
नहीं हैं अब स्वीकार्य 
वसुधैव कुटुम्बकम 
अब भारत की भावना नहीं
दुनियाँ की सच्चाई बन रही है
धरती के प्राकृतिक रूकावटों को 
हम कबके जीत चुके हैं 
कृत्रिम बाधाएँ 
हमें रोक नहीं सकती
अब ज़्यादा दिन 

- नीरज कुमार झा 

शुक्रवार, 18 जून 2010

भारतीय की हुई ईस्ट इंडिया कंपनी



       वर्तमान वर्ष २०१० भारत के लिये इस घटना के लिये ऐतिहासिक रहेगा, प्रतीकात्मक रूप से ही सही, कि ४८ वर्षीय मुम्बई में जन्मे भारतीय उद्यमी संजीव मेहता ने ईस्ट इंडिया कंपनी को पुनर्जीवित करते हुए इसे फ़िर से बाजार में उतार दिया है. यह वही कंपनी है जिस सन १६०० के आख़िरी दिन ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम ने शाही चार्टर के द्वारा पूरब से व्यापार करने का एकाधिकार सौंपा था. अब यह सोचना अविश्वसनीय लग सकता है कि यह एक ऐसी कंपनी थी जिसकी सशस्त्र सेनाएँ समुद्री बेड़े, मुद्रा, ध्वज और साम्राज्य थे. 
       सन २००० में इस कंपनी के स्थापना की ४०० वीं वर्षगाँठ थी और उस वर्ष इस कंपनी की ऐतिहासिक भूमिका को लोगों ने याद भी किया. सन २००० के कुछ ही समय बाद ही यह कंपनी संजीव मेहता की नज़रों में आई और २००५ में कंपनी और इतिहास ने नई करवट ली जब संजीव मेहता ने इस कंपनी को इसके ३० से ४० मालिकों (अधिकतर ब्रिटिश) से खरीदने की प्रक्रिया पूरी कर ली. यह मेहता के लिये और भारत के लिये एक विशेष अवसर था. मेहता अपने इस अहसास का बखान करने में असमर्थ थे कि वह कंपनी अकेले उनकी है जिसका कभी पूरा भारत था.
       आखिरकार इतिहास ने एक वृत्त पूरा कर लिया है. १६१५ में सर टामस रो जहांगीर के दरबार में हिंदुस्तान में व्यापार के फरमान के लिये चिरौरी कर रहे थे | वही कंपनी धीरे-धीरे समस्त भारत का हुक्मरान बन बैठी. आज लगभग चार सौ साल बाद उस कंपनी की अवर्णनीय विरासतों का एकमात्र वारिस एक हिन्दुस्तानी है. उसके पास वह 'कोट अव आर्म्स ' भी है जो एलिज़ाबेथ प्रथम ने कंपनी को दिया था. कंपनी बहादुर नाम जो कभी भारत में प्रभुता का प्रतीक था अब एक हिन्दुस्तानी बहादुर की निजी संपत्ति है. सन १९९१ में जब भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और विदेशी निवेश के लिये दरवाजे खोल दिये गये तो कई भारतीयों के मन में एक ही डर था कि विदेशी कंपनियों की वापसी कहीं फ़िर से गुलामी का बुलावा तो नहीं है? आज भारतवासी दुनियाँ के हर कोने में अपनी औद्योगिक, वाणिज्यिक और व्यावसायिक दक्षता और नेतृत्व की धाक जमा चुके हैं. भारतवासी इतिहास को पलट रहे हैं और पुरानी दास मानसिकता को पीछे छोड़ रहे हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी का एक भारतीय के द्वारा खरीदा जाना भारतीयों के आत्म सम्मान और विश्वास को अवश्य पुष्ट करेगा.
                                                                               -  नीरज कुमार झा 
[बी पी एन टुडे, वर्ष २ अंक ८, जून २०१० में प्रकाशित मेरे आलेख "भारतीय की हुई ईस्ट इंडिया कंपनी," (पृ. ३५-३६) का सारांश.]

रविवार, 13 जून 2010

प्रस्तर और पुष्प



टुकड़ों का शहर

 शहर बसा है टुकड़ों में 
टूटा शहर नहीं है 
शहर बना है टूटों से
रहते भी टूटे ही टुकड़ों में 
शहर की हैं परतें 
शहर उधड़ रहा है
दिख रही हैं परतें 
लेकिन एक जैसी नहीं 
परतों में रहते हैं लोग
जीते हैं परतों में 
परतदार ज़िंदगी
ख़ुद को नहीं जानते लोग
खदक रहा शहर बरसों से 
लोथड़े हो गये टुकड़े
अलग हो रहीं पपड़ियाँ 
लेकिन वे पिघलती नहीं 
घुलती नहीं  

- नीरज कुमार झा 

रविवार, 6 जून 2010

अधिकार और अधिनियम

नीरज कुमार झा


जनतंत्र शासनतंत्र में खुलेपन का भी पर्याय है जो भारत में अभी भी दूर की कौड़ी लगती है. देश में शासनतंत्र और नौकरशाही के औपनिवेशिक स्वरूप में परिवर्तन लाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है. सूचना का अधिकार जनता के हाथों में एक ताक़तवर हथियार तो है, लेकिन वह लगभग वैसा ही है कि घर में नल का पानी बह रहा हो और उसको बंद किए बिना झाडू से पानी हटाने का प्रयास किया जाए. ... जरूरत शासन को सहज, सुगम और मैत्रीपूर्ण बनाने की है, जिससे लोग समस्त सरकारी सेवाओं का लाभ बिना परेशानी के सद्भावपूर्ण माहौल में प्राप्त कर सकें. ऐसे में सूचना के अधिकार की आवश्यकता ही नहीं होगी. वास्तव में हमारी समस्या अतिशासन की है. जरूरत इसके कार्यों को सीमित और मनमाफिक फैसले लेने की ताक़त को कम करने की है. 
...... 

गौर करने की बात है कि अधिनियमों का आधिक्य देश और समाज की कमजोरियों का प्रतिबिम्बन होता है. एक नया अधिनियम प्रायः हमारी उपलब्धि नहीं बल्कि विफलता का परिणाम होता है. निकट भविष्य में ही पीने के पानी का अधिकार, स्वच्छ हवा का अधिकार और अधिकारों को प्राप्त करने का अधिकार जैसे अधिनियम पारित होंगे. ये अधिनियम वास्तव में हमारे सार्वजनिक जीवन के विषयों के प्रबंधन में विफलता के कारण अस्तित्व में आएंगे.

"अधिकार और अधिनियम," बी पी एन टुडे, वर्ष २, अंक ८,  मई २०१०, पृष्ट १४-१५ से उद्धृत 

गुरुवार, 3 जून 2010

शहर के पुल


शहर पटा पुलों से
आवाजाही भी बहुत पुलों पर
शहर को बाँटते नदी-नाले
पता भी नहीं पड़ते
नदी-नाले पता तो नहीं पड़ते
लेकिन इस गुमनाम आवाजाही से
पता भी क्या पड़ता है
आते-जाते हैं लोग
पता उनका भी नहीं पड़ता
शहर है बड़ा
दरारें हैं चौड़ी
पर पता नहीं चलता
पुल पड़े हैं पाटों पर
जोड़ते नहीं किनारों को
बार-बार पार होते हैं लोग
लेकिन पार नहीं हो पाते लोग
पता उसका भी नहीं चलता

- नीरज कुमार झा