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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

स्लमडॉग मिलिनेयर : एक समीक्षा

नीरज कुमार झा

स्लमडॉग मिलिनेयर एक ब्रिटिश फिल्म है. इसके निर्माता क्रिश्चन कोल्सन तथा निर्देशक डैनी बॉयल ब्रिटिश नागरिक हैं और वितरक फ़ॉक्स सेंचुरी पिक्चर्स तथा अन्य अमरीकी कम्पनियाँ हैं. इस फिल्म को फरवरी में आयोजित ८१ वें अकाडमी अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के सहित आठ आँस्कर पुरस्कारों से नवाजा गया. इस फिल्म को गोल्डेन ग्लोब तथा बाफ्टा पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है. इसके अलावा अन्य अनेक पुरस्कार इस फिल्म को मिले हैं. वास्तव में पश्चिम ने इस फिल्म पर पुरस्कारों की झड़ी लगा दी है. इस फिल्म की कहानी भारत की है - एक झोपड़पट्टी के नवयुवक की - जो जिन्दगी के तमाम संघर्षों एवं त्रासदियों को झेलता हुआ अंततः टेलीविजन पर आयोजित सामान्य ज्ञान पर आधारित कार्यक्रम "कौन बनेगा करोपति" में २ करोड़ रूपये जीतता है और अपनी छिनी प्रेमिका को भी पा लेता है. इस फिल्म का फिल्मांकन, जैसा कि स्वाभाविक है, भारत में हुआ है और भारतीय कलाकारों तथा फिल्म निर्माण से जुड़े अन्य दक्ष हाथों का उपयोग इस फिल्म में हुआ है. चूंकि इस फिल्म की कहानी भारत की है, इसके अधिकतर कलाकार भारतीय हैं और ए आर रहमान का जादुई संगीत इसमें है तो पश्चिम से मान्यता तथा सराहना के लिये तरसते भारतीय इस फिल्म को अपने देश की फिल्म मान बैठे हैं. अकाडमी अवार्ड्स में इस फिल्म की बम्पर सफलता के बाद देश में ऐसी खुशी देखी गयी कि मानो भारत ने ओलम्पिक खेल में चीन की तरह सर्वाधिक पदक जीत लिया हो. अंत में डैनी बायल को कहना पड़ा, हालांकि उन्होंने ऐसा पूरी विनम्रता के साथ कहा, कि स्लमडॉग एक ब्रिटिश फिल्म है, भारतीय नहीं. 

भारत में इस फिल्म को लेकर इतना उल्लास क्यों है जबकि यह भारतीय फिल्म नहीं है? इस तरह का उल्लास तभी जायज होता यदि इस फिल्म में भारत का महिमामंडन किया गया होता. इसमें भारतीय समाज, इतिहास या परम्परा के किसी भी पक्ष का ऐसा चित्रण होता जो भारतीय सभ्यता की महानता को दुनियाँ के सामने लाता. ऐसी फिल्म रिचर्ड एटनबरो की गांधी थी जिसे भी आठ आस्कर पुरस्कार मिले थे. इस फिल्म में गांधीजी के जीवन एवं सन्देश का सशक्त चित्रण है जो पूरी दुनियाँ को मानवता के इतिहास में उनके अहम् योगदान को समझने में मदद करता है. इसके विपरीत स्लमडॉग भारत के सम्बन्ध में जितनी भी बुराइयां हमारे सामान्य ज्ञान के हिस्से हैं, उन सभी को बलात एक कहानी के नाम पर इस फिल्म ठूसा गया है. वास्तव में इस फिल्म में कोई कहानी है ही नहीं बल्कि कहानी के बहाने भारतीय जीवन के काले दागों को पूरी भारतीयता का सच बनाकर सामने रखा गया है. 


जो भी हो स्लमडॉग कोई गाली नहीं हैं. यह शब्द अंडरडॉग के समान्तर के रूप में गढ़ा गया है जिसका अभिप्राय कमजोर, वंचित तथा पराजित से है. भारत में इस फिल्म के नाम को लेकर जो विरोध हुआ है वह स्लमडॉग के अर्थ की नासमझी से पैदा हुआ है. हालांकि किसी विदेशी शब्द के भावार्थ को समझना हमारी समस्या नहीं है. वैसे भी गुलामी के दिनों में अंग्रेज हमसे जिस तरह का व्यवहार करते थे उससे इस शब्द का गलत अर्थ लगाना बिलकुल स्वाभाविक है. सच तो यह है कि स्लमडॉग शब्द भले ही गाली नहीं हो लेकिन यह पूरी फिल्म अपने-आप में गालियों की टोकरी है. यह फिल्म दिखाना चाहती है कि भारत अभी भी भिखारियों, चोर-उचक्कों, दंगाइयों, ठगों, अपराधियों, बच्चों तथा स्त्रियों के देह-दोहन करने वाले दरिंदों, ढोंगियों, प्रसिद्ध व्यक्तियों के आकर्षण में पागलों तथा बर्बर व्यवस्था का देश है, जहाँ नैतिकता तथा क़ानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है और मात्र अपराधी किस्म के लोग यहाँ फल-फूल रहे हैं. यह चित्र पूर्ववर्ती औपनिवेशिक स्वामियों के द्वारा भारत तथा भारतीयों के चित्रणों की पुनरावृत्ति है जिनमें भारतीयों को धूर्त, नकारा, हत्यारा और बलात्कारी बताया जाता था. 

यद्यपि इस फिल्म को मिले पुरस्कार भारतीयों के भी हिस्से में आये हैं लेकिन भारत को मिला गौरव परावर्तित है. दैदिप्यमान कोई और हो रहा है और उससे जो रोशनी हम पर पड़ रही है; उसको लेकर हम फूले नहीं समा रहे हैं. जब कहा जाता है कि भारत गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है तो सामान्यजन उसका व्यवहारिक पक्ष समझ नहीं पाते हैं. इस फिल्म को मिली सफलता को लेकर भारतवासियों को आह्लाद उस मानसिकता का बेहतरीन उदाहरण है. एक स्वामी की उपलब्धि पर उसके दास स्वामी से भी ज़्यादा खुश होते हैं; यह दासता की मानसिकता की विशिष्टता है. भारत की विद्रूपताओं का फूहड़ तथा साथ ही वीभत्स चित्रण में भी एक प्रतिष्ठित फिल्म टिप्पणीकार को 'दिव्य' के दर्शन हुए.k आस्कर के चकाचौंध के कारण यह दृष्टिदोष उत्पन्न हुआ है, यह तो संभव है ही, लेकिन अमेरिका की एक संस्था ने स्लमडॉग को यदि श्रेष्ठ माना है तो भारतीय टिप्पणीकार के द्वारा उसमें दैवी आभा दिखना बाध्यकारी हो जाता है. एक अखबार ने लिखा कि "जय हो" देश का राष्ट्रगान बन चुका है. रहमान श्रेष्ठ संगीतकार हैं और गुलज़ार गीतकार. उनकी प्रतिभा के अनुरूप यह गीत भी उत्कृष्ट श्रेणी का है लेकिन यह गीत न उनके श्रेष्ठतम रचनाओं में से है और न ही भारत के संगीत संसार की महानतम उपलब्धियों में से. फ़िर भी यदि यह गीत आस्कर से सम्मानित हुआ है तो यह राष्ट्रगान या राष्ट्रगान के समकक्ष हो गया है जैसा कि भारत का एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक मानता है.

हमारे नेताओं की प्रतिक्रियाएं तो और भी अचरज में डालने वाली है. आज हमारे नेतृत्व में शामिल विभिन्न दलों के लोगों ने तथा उनके दलगत, विचारधारात्मक पूर्ववर्तियों तथा अनेक के माँ-बाप, दादा-दादियों ने, उनके रिश्तेदारों ने पूरे देश पर या इसके हिस्सों पर शासन किया है या कर रहे हैं. उनमें से किसी ने भी देश से इस बात की माफी नहीं माँगी कि यदि देश में इस तरह की जहालत है और जिसे विदेशों में पूरी नंगई के साथ प्रदर्शित किया जा रहा है तो इसके लिये वे उत्तरदायी हैं. फिल्म में प्रदर्शित कथाक्रम से भी अधिक अप्रिय तथ्य यह है कि स्लमडॉग की सफलता को लेकर देश में उल्लासमय तथा उत्सवी माहौल हीन भावना से ग्रस्त राष्ट्रीय भावना का परिचायक है. 

इस फिल्म की कहानी को यदि एक लोटा माना जाए तो उसकी पेंदी में सुराख ही सुराख है. मुख्य पात्र में जिस तरह की संवेदनशीलता, वाकपटुता, स्मरण तथा  विवेचना की शक्ति दिखाई गयी है, वह इस तरह की पृष्ठभूमि के किशोर के लिये असामान्य है. एक टिप्पणीकार ने इस फिल्म  को बूढ़े बालक की कहानी बतायी है. अर्थात् ऐसे बालक की कहानी जो अपने अनुभवों के कारण वृद्ध हो चुका हो. उक्त महोदय को इस बात की समझ बिलकुल नहीं है कि कंगाली, क्रूरता, और जीवन के लिए दैनंदिन संधर्ष करने वाले लोग बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं बल्कि उनकी संवेदना कुंद तथा सम्प्रेषण क्षमता अविकसित रह जाती है. उनमें जीवन रक्षा का सहज बोध अवश्य तीक्ष्ण हो सका है लेकिन इस तरह के किसी बालक को अमेरिका के किसी राष्ट्रपति का नाम याद रहे, यह असंभव सा है. भारत  में आयोजित 'कौन बनेगा करोड़पति' गेमशो के मेजबान अमिताभ बच्चन थे. उसी तरह के अन्य शो भी हुए जिनमें मेजबान भारतीय सिनेजगत के नामीगिरामी कलाकार थे. क्या इनमें से किसी पर भी किसी अंडरडॉग (अपेक्षाकृत गरीब) सहभागी के प्रति उपहासात्मक या धूर्तता की प्रवृत्ति होने का आरोप लगाया जा सकता है? पटकथा में इस तरह की  अनेक त्रुटियां हैं और जिनकी चर्चाएँ भी हुई हैं जो इसे अस्वाभाविक बना देती हैं. 

इस फिल्म के  कथानक में भारत के सम्बन्ध में जिनती भी बुरी बातें महानगरीय परिवेश में एक औसत शिक्षित व्यक्ति जानता है, उनको एक बेहद ही  कमजोर कड़ी में पिरोया गया है. महानगरीय शिक्षण संस्थानों में जिस तरह की शिक्षा दी जाती है, देश पर हावी तथाकथित सेक्यूलर मीडिया जिस तरह से तथ्यों को रखती हैं, उनसे इस तरह के लोगों को भारत की तस्वीर तो दिखती है लेकिन समझ उस तस्वीर की कैनवास पर पुते रंगों जितनी ही गहरी होती है. फिल्म में दिखाई तमाम विद्रूपताएं भारत में मौजूद हैं और इनसे ज़्यादा गंभीर समस्याएँ भी है लेकिन यह फिल्म उन मुद्दों को एक सामान्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की मानसिकता, समझ, सोच तथा आकांक्षाओं की दृष्टि से देखती है. यह फिल्म उस वर्ग का वास्तविक चित्रण नहीं करती  जिसपर कैमरा फोकस है बल्कि तमाम आवरणों के अंदर यह एक करिअरिस्ट मध्यवर्गीय छात्र का वर्तमान भारत की समस्या पर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किया गया लेख ही दिखता है. यह कहानी भारतीय मध्यवर्ग की समझ में आती है, उसे वास्तविक लगती है, उसे अपील करती है, क्योंकि यह कहानी उसकी  समझ का अनुमोदन करती है. 'कौन बनेगा करोड़पति" जैसे टेलीविजन शो' देश पर हावी सोच का ही प्रतिबिम्बन करती है जो एक बेतरतीब तथा निरूद्देश्य सूचनाओं के पिटारे को शिक्षा का मूल मानती है. 

इन खामियों को सिनेमैटिक लाइसेंस के रूप में नजरअंदाज किया जा सकता है. यह भी सही है कि फिल्म में दिखाई गयी सारी बातें अलग-अलग ग़लत  नहीं हैं, कुछ बतौर अपवादस्वरूप तथा कुछ सामान्य रूप से, लेकिन इन सब तथ्यों का एक जगह तथा एक साथ होना यथार्थपरक नहीं है. इस फिल्म को विदेशी जब देखेंगे जिनकी जानकारी स्वाभाविक रूप से भारत के विषय में अत्यल्प से शून्य के बीच होगी और ऑस्कर तथा अन्य पुरस्कारों के बाद ज्यादा देखेंगे और एक यथार्थ का चित्रण करने वाली फिल्म के रूप में देखेंगे तो उनके मस्तिष्क में जो भारत की घिनौनी तथा डरावनी तस्वीर बनेगी, उसे मिटने में दशकों लग जाएंगे. 

इस फिल्म का छिपा चेहरा भी है. वास्तव में पाश्चात्य जगत भारत को उसकी औकात बता रहा है. भारत भले ही आणविक शक्ति के रूप में स्वीकृति पा ले, चाँद पर यान भेज दे, लक्ष्मी मित्तल यूरोप की आर्सेलर कंपनी खरीद ले, रतन टाटा कोरस, जगुआर तथा लैंडरोवर जैसी कंपनियों के तारणहार बन जाए, उसके पेशेवर विश्व की कंपनियों में अपना सिक्का चलाएँ, पूरे विश्व को बेजार करने वाली आर्थिक मंदी उसे विचलित न कर सके, लेकिन देखो ये है तुम्हारी हकीकत ! उनकी यह कोशिश किसी सुविचारित योजना का हिस्सा नहीं है. वैसे भी इस फिल्म की मूल कथा एक भारतीय राजनयिक द्वारा रचित है. जो बात समझने की है कि उन्हें यह कहानी इसलिये जमी कि भारत को लेकर उनकी कुंठाएं हैं और उनसे जनित अनवरत उठ रहे टीस पर यह कथानक मलहम लगाती है. यह बात उन्हें गले नहीं उतर रही कि हाल गयी सदी के पूर्वार्द्ध तक उनके चाकरों का देश आज जनतंत्र का परचम फहराता हुआ उस गति से आगे बढ़ रहा है कि निकट भविष्य में वह हर मामले में न सिर्फ़ आगे होगा बल्कि बहुत ही आगे होगा. इस कहानी में हर प्रश्न के उत्तर के पीछे की कहानी को और भी माध्यम से भी बताया जा सकता था. मुख्य पात्र यह कहानी किसी पत्रकार को भी बता सकता था, इसी दोस्त को बता सकता था, लेकिन वह बताता है पुलिस के बेरहम थर्ड डिग्री के आगे. यदि ऐसा नहीं होता तो मानवाधिकारों को ताक पर रखकर काम करने वाली भारत की पुलिस की बात कैसे सामने आती ! इस फिल्म में एक संवाद मारके की है. फिल्म का एक पात्र, जो स्वयं अपराधी है और संगठित अपराध में लिप्त एक सरगने के लिये काम करता है, कहता है कि आज तेज गति से बढ़ रहा भारत वैश्विक व्यवस्था का केंद्र बन रहा है और हम उस केंद्र के केंद्र में हैं. यह भारत की उपलब्धियों को मापने का पैमाना !

हम उस सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं जहाँ मानवीयता उस ऊंचाई तक पहुँच चुकी थी जिसे छूना आज भी तमाम संस्कृतियों के लिये असंभव चुनौती है और हमारा उज्ज्वल भविष्य हमें अपने वर्त्तमान से ऊपर उठाने को सामने हाथ बढ़ाए खड़ा है. ऐसे में यह बिलकुल नहीं होना चाहिए कि कोई हमें पतित कहे और हम खुशी के मारे नाचने लगे बल्कि अभीष्ट यही है कि पूरे विश्व में महान से अधम तक की पहचान का आधार हमारा अनुमोदन हो.

सोमवार, 21 सितंबर 2009

उच्च शिक्षा : सन्दर्भ मध्यप्रदेश

नीरज कुमार झा



         भारत के मध्य में एक विशाल राज्य के रूप में मध्यप्रदेश की स्थापना का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता को अक्षुण रखने के लिये एक ठोस केन्द्रीय क्षेत्र का निर्माण करना था. १ नवम्बर २००० को छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने से पूर्व क्षेत्रफल के अनुसार यह भारत का सबसे बड़ा राज्य था. यह अभी भी राजस्थान के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है. इसका क्षेत्रफल ३०८,१४४ वर्ग किलोमीटर है. इसका आकार दुनियाँ में क्षेत्रफल के अनुसार क्रमशः ७१वें तथा ७२वें क्रम के इटली तथा फिलीपिंस जैसे देशों से बड़ा है. आबादी के अनुसार भारत में इसका स्थान ७वां है जो विश्व में आबादी के हिसाब से २२वें क्रम के यूनाइटेड किंगडम तथा २३वें क्रम के इटली के बीच का है. हर दृष्टि से मध्यप्रदेश एक विशाल भूखंड है. सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी इस प्रदेश में भारतीय सभ्यता के अनेक पुरातन केंद्र स्थित हैं. राष्ट्रनिर्माण तथा भारतीय सभ्यता के उत्थान में इस राज्य की महती भूमिका को रेखांकित करना अनावश्यक है, अर्थात् स्वयंसिद्ध है. इस प्रदेश के नागरिकों ने भी सदैव राष्ट्रीय सोच का ही पोषण किया है. मध्यप्रदेश बिरले राज्यों में है जहाँ आज तक कोई राज्य स्तरीय या क्षेत्रीय दल पनप नहीं पाया है.
         राष्ट्र और सभ्यता के ध्येयों की पूर्ति हालांकि मात्र वृहद् आकार से संभव नहीं है. एक पिछड़े राज्य के रूप में मध्यप्रदेश राष्ट्र का मर्मस्थल कदापि नहीं बन सकता है. राष्ट्रीय एकता तथा प्रतिष्ठा को सुदृढ़ करने के लिये मध्यप्रदेश को शक्ति तथा आकर्षण का पुंज बनना होगा. यह शक्ति तथा आकर्षण प्रदेश के आर्थिक विकास तथा सांस्कृतिक उन्नयन से ही संभव है. उन्नति का मानदंड भी राष्ट्रीय न होकर वैश्विक हो, यही आज के दौर में उचित है. आर्थिक विकास से पर्यावरण का मुद्दा भी जुड़ा है. पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए उच्च स्तरीय प्रबंधन की आवश्यकता होती है. विकास के लिए अन्य प्रमुख आवश्यकताएँ उन्नत अधोसंरचना, प्रभावी कानून-व्यवस्था व न्यायप्रणाली तथा स्वच्छ, सक्षम, एवं मैत्रीपूर्ण प्रशासन है. इन सबके लिए जरूरी है योग्य तथा निष्ठापूर्ण नेतृत्व. मध्यप्रदेश में आज गत्यात्मकता है, यहाँ विकास हो रहा है, तथा प्रदेश में सक्षम नेतृत्व भी है लेकिन वैश्विक स्तर पर स्थान बनाने के लिये आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक स्तर पर बहुत कुछ अपेक्षित है. विश्वस्तरीय मानदंडों के लिये जिस सोच, समझ तथा क्षमता की आवश्यकता है, वह तो राष्ट्रीय स्तर पर भी न्यून ही है. इसके लिये उत्कृष्ट नेतृत्व तथा श्रेष्ठ राजनैतिक संस्कृति का संयोग होना आवश्यक है.
          सारी बात जहाँ आकर ठहरती है वह है शिक्षा. एक बेहतरीन शिक्षा प्रणाली के द्वारा ही प्रदेश प्रगति के आवश्यक शर्तों की पूर्ति के लिये जमीन तैयार कर सकता है. आज प्रदेश में शिक्षा का स्तर राष्ट्रस्तरीय भी नहीं है जबकि आज के दौर में जो विश्वस्तरीय नहीं है वह इस विश्वग्राम में बेमानी है. भारत के उद्योग-धंधे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि भारतीय शिक्षाप्रणाली के बहुसंख्य स्नातक उनके किसी काम के नहीं है. हालांकि उच्च स्तरीय शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य मात्र सरकार तथा अर्थव्यवस्था के लिये कामगार उपलब्ध कराना नहीं है. इसका प्रभाव सर्वव्यापी है. उदाहरण के लिये समाज में अपराध का भी प्रमुख कारण शिक्षाव्यवस्था की खामियाँ हैं. अधिकतर अपराध दिमाग में पनपते हैं जिसकी औषधि, जैसा कि प्लैटो ने कहा था, शिक्षा है. प्रशासन तथा प्रबंधन में दक्षता तथा यहाँ तक कि समाज में नैतिकता के लिये भी शिक्षा की गुणवत्ता निर्णायक है लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भारत में दिवास्वप्न की तरह है. यहाँ प्रतियोगिता, प्रशिक्षण तथा दक्षता के नाम पर तोता-रटाई ही चलन में है. यह प्रणाली भारतीयों को पहल, प्रयोग तथा परिवर्तन के दृष्टिकोण से अनुपयुक्त बनाती है.
         शिक्षा को उठाने के लिये पहली चुनौती समुचित रूप से शिक्षितों की उपलब्धता की है तथा दूसरी चुनौती शिक्षा को लेकर सही सोच को विकसित करने की है. इनका समाधान तत्कालीन तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात देशी शिक्षाविदों को तथा विदेशी शिक्षाविदों को भी उनकी शर्तों पर स्वायत्त रूप से शिक्षण संस्थानों के निर्माण तथा विकास करने के लिये आमंत्रित कर किया जा सकता है. यह चीन द्वारा शिक्षा के विकास को लेकर अपनायी रणनीतियों में से एक है. दूसरी आवश्यकता इस क्षेत्र में सरकारी सर्वाधिकार तथा नियंत्रण से मुक्ति पाने की है. ज्ञान आयोग तथा यशपाल समिति की सिफारिशें इस संदर्भ में महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. यह क्षेत्र वास्तव में सबके लिये खुला होना चाहिए. इसमें सरकार, निजी निकाय, परमार्थिक संस्थाएँ, स्वयंसेवी संगठन, लाभ के सिद्धांत पर कार्यशील कारपोरेट प्रतिष्ठान तथा विदेशी संस्थानों आदि सभी की आवश्यकता इस क्षेत्र में है. भारत में शिक्षा के क्षेत्र में लाभ की अनुमति नहीं है. यह शिक्षा में पाखण्ड तथा भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण है. लाभ बिलकुल वाजिब मंशा है. इसका विकल्प अधिकांशतः कपटियों को खुली छूट देना ही है. प्रणाली, दृष्टिकोण, सोच तथा ध्येय की विविधता तथा प्रतियोगिता ही शिक्षा को उपलब्ध की उँचाइयों तथा संभावनाओं की व्यापकता में ले जा सकती है.
         तीसरी आवश्यकता समाज में उपलब्ध श्रेष्ठ प्रतिभाओं को इस क्षेत्र में लाने की है. आज भी देश की श्रेष्ठ प्रतिभाएँ शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं लेकिन वे इस क्षेत्र में दी जाने वाली सुविधाओं की वजह से नहीं बल्कि तमाम असुविधाओं के बावजूद इसमें आते हैं. उनकी प्रतिबद्धता उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में लाती है. आवश्यकता इस अध्यवसाय को सर्वाधिक आकर्षक बनाने की है ताकि श्रेष्ठतम प्रतिभाएँ बेझिझक मानवहित के सबसे महत्वपूर्ण कार्य में सम्मिलित हो सकें. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रदत्त नवीन वेतनमान इस दिशा में प्रारंभिक चरण है. इसके साथ ही शिक्षकों को अध्ययन, अध्यापन तथा शोध हेतु प्रवृत्त करने के लिये उचित सुविधाओं, प्रशिक्षण तथा वातावरण उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है. शिक्षा को लेकर तदर्थवादी सोच तथा लापरवाही समाज के लिये घातक है. यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि शिक्षा को निजी निकायों के लिये खोलने का मतलब यह कदापि नहीं है कि सरकार अपनी भूमिका को कम करे. इस क्षेत्र में सरकार की प्रतिबद्धता को सघन तथा आवंटन को बढ़ाने की आवश्यकता है लेकिन साथ ही उसकी भूमिका को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है, जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया गया है. यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा सरकार का प्राथमिक दायित्व है.

         मध्यप्रदेश में शिक्षा का स्तर ऐसा होना चाहिए कि शिक्षा ग्रहण करने के लिये देश के कोने-कोने से ही नहीं बल्कि विकसित देशों से भी छात्र यहाँ पहुँचें. यहाँ के स्नातक ऐसे हों जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय के स्नातकों की तरह वैश्विक नेतृत्व में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने में सक्षम हों. मध्यप्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता जब विश्व के शीर्ष पर होगी तब ही प्रदेश राष्ट्रीय एकता तथा प्रतिष्ठा का भी मजबूत केंद्र बन सकेगा. ऐसा करके यह प्रदेश भारत के सभी हिस्सों के लोगों को अपनी भारतीयता को लेकर गर्वान्वित होने के लिये प्रेरित करेगा. ऐसी व्यवस्था सनातन मूल्यों की गरिमा को मानव कल्याण हेतु विश्वस्तर पर भी प्रतिष्ठापित करने के लिये भी आवश्यक है. यह प्रदेश अपने संसाधनों तथा राष्ट्रवादी सोच में प्रखरता के आधार पर ऐसा कर सकता है.

नीरज कुमार झा, "शिक्षा से मप्र बन सकता है सुदृढ़ राज्य," स्वदेश, २८ अगस्त २००९, पृ. ६.