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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

समकालीन परिदृश्य में शिक्षा एवं शिक्षक : विचारार्थ कतिपय बिंदु



प्राचीन भारत निश्चित रूप से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में समकालीन विश्व में अग्रणी था। मानव सभ्यता के विकास में भारतीय मनीषा का आधारभूत योगदान है। आज स्थिति हालांकि भिन्न है। भारत स्वतंत्रता के लगभग सात दशकों के बाद भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में अपना अभीष्ट स्थान सुनिश्चित नहीं कर पाया है। आज तक, स्वतंत्रता के लगभग सात दशक के बाद भी, विश्व के शीर्ष विश्वविद्यालयों के गुणानुक्रम में भारतीय विश्वविद्यालय स्थान नहीं पा सके हैं। यह स्थिति विडंबनात्मक है क्योंकि भारतीय मेधा का लोहा दुनियाँ मानती है। इस विडंबना की जड़ें गहरी हैं। बाह्य आक्रान्ताओं से पराजय और तत्पश्चात् अधीनता की लम्बी कालावधि में भारत में शिक्षा का पराभव होना तय था और वैसा हुआ भी। पराभव के दौर में ही, ऐसा रेखांकित करना सर्वथा प्रासंगिक है कि, उस प्राच्य शिक्षा परम्परा की अदम्य शक्ति भी सिद्ध हुई। लगभग एक सहस्राब्दी की दासता और दमन के बावजूद भारतीय संस्कृति और सभ्यता की अस्मिता अक्षुण्ण रही। ऐसा पूरे विश्व में कहीं संभव नहीं हुआ था। आज वैश्विक महाक्रांति के इस दौर में चुनौती यह नहीं है कि भारत विश्व के समक्ष अपनी शिक्षा व्यवस्था की स्तरीयता सिद्ध करे बल्कि यह है कि यह स्वयं सहित पूरे विश्व को संक्रमण के इस दौर में मार्गदर्शन करे। यह तय है कि इस लक्ष्य के निमित्त प्रयास को सफल बनाने में शिक्षा की भूमिका आधारभूत होगी। आलेख में समकालीन परिदृश्य को दृष्टिगत करते हुए भारतीय शिक्षा और शिक्षक की स्थिति को लेकर विचारार्थ कतिपय बिंदु प्रस्तावित हैं। 

आज भारत को विश्व की जरूरत से ज़्यादा विश्व को भारत की जरूरत है। भारत का दर्शन ही विश्व को सभ्यताओं के संघर्ष, जातीय विद्वेष, पारिस्थीतिकीय असंतुलन, आसुरी रक्तपात तथा आत्मघाती संताप के प्रकोप से बचा सकता है। यह भी तय है कि भारत विश्व के बौद्धिक नेतृत्व की अपनी स्वाभाविक भूमिका के सम्यक् निर्वहन के द्वारा ही अंतरराष्ट्रीय जगत में भारतीय सभ्यता को चुनौती देने वाली ताक़तों को परास्त कर सकेगा। वैश्विक नेतृत्व के स्वाभाविक और नैतिक दायित्व के निर्वहन हेतु भारत को पहले स्वयं तैयार होना होगा। भौतिक विपन्नता, सांस्कृतिक क्षरण तथा बौद्धिक विकलता के साथ इस तरह की भूमिका के प्रयास हास्यास्पद ही होंगे। ऐसी स्थिति स्वतः सिद्ध होगी यदि राष्ट्र संपत्ति, संस्कृति और बौद्धिक रूप से उत्कृष्टता के शिखर पर हो। यहाँ यह तथ्य रेखांकित करना आवश्यक है कि भारत का उत्थान सभ्यता का उत्थान है न कि बर्बरता का परिमार्जन है। भारत को अपना वैश्विक नेतृत्व सुनिश्चित करने के लिए आतंरिक तौर से सुसंगठित होना होगा। भारत को शक्ति, संपत्ति और संस्कृति के दृष्टिकोण से वैश्विक धुरी बनना होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए देश की शिक्षा व्यवस्था ही आधार हो सकती है। ज्ञान किसी भी योजना का आधार है। ज्ञान ही श्रेष्ठता का साधन है और साध्य भी। मानव प्रकृति की विशिष्टता उसके ज्ञान बोध की क्षमता है।

राष्ट्र पुनरुत्थान के अभियान की सफलता शिक्षा के साथ ही शिक्षकों को केंद्र में रखे बिना संभव नहीं है। उत्कृष्टता की सामाजिकता राष्ट्रोद्भव की आधाररभूमि है और ऐसी सामाजिकता शिक्षकों के नेतृत्व की मांग करती है। गुरुओं की प्रभुता ने ही प्राचीन भारत को विश्वगुरु बनाया था। यदि भारत अपनी पुरातन सभ्यता के बल, वैभव और गौरव के अनुरूप पुनर्स्थापित होना चाहता है तो उसे निश्चित रूप से शिक्षा और शिक्षकों को इस अभियान के केंद्र में लाना होगा। आज स्थिति यह है कि भारत में शिक्षा और शिक्षक परिस्थितियों को प्रभावित करने के स्थान पर स्वयं परिस्थितियों के दास बने हुए हैं। शिक्षा व्यवस्था की स्थिति राजनैतिक और आर्थिक तंत्र के संयंत्र की तरह है। परिणामतः विडम्बना यह उत्पन्न हो रही है कि आज सभी शिक्षकों को ही शिक्षित करने में लगे हुए हैं। इस विडम्बना की जड़ें भारत के दासता के इतिहास में है। विदेशी दासता के दौर में भारतीय सभ्यता की प्रभुसत्ता विच्छिन्न हो गयी, जिसका अति नकारात्मक प्रभाव यहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर पड़ा। समस्त गुरुकुल हीनता के भाव से ग्रस्त हो गए। आंग्ल शासन के दौर में उस पुरातन व्यवस्था को समूल ही नष्ट कर दिया गया और आधुनिक शिक्षा के नाम पर समस्त शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों को उपनिवेश के औचित्य सिद्धि का उपकरण बना दिया गया। स्वतंत्रता अभियान के दौर से ही अपना प्रभाव प्रबल कर रहे वामपंथ ने बाकी कसर पूरी कर दी। इसकी छाया में शिक्षकों समेत पूरी शिक्षा व्यवस्था ही भ्रमजाल में फंस गयी और शिक्षाजगत राष्ट्रोत्थान के अभियान को तिलांजलि देकर एक घातक निरर्थकता में लिप्त हो गया। इस स्थिति का परिणाम स्पष्ट दृष्टिगोचर है। भारत अपनी सभ्यता में अन्तर्निहित उत्कृष्टता को जीवंत करने के बजाय भौतिक और बौद्धिक विपन्नता के साथ आतंरिक कलहों में ही उलझा रहा है और साथ ही देश वैश्विक सभ्यता को नेतृत्व प्रदान करने के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के कुचक्र में फंसा रहा है। 

इस तथ्य को पूरी गंभीरता से समझना होगा कि शिक्षा व्यवस्था पर संकेंद्रण की आवश्यकता विशेषकर समकालीन परिस्थितियों में अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। पहली परिस्थिति देश में जनतंत्र की गहरी होती जड़े हैं। देश में सापेक्षिक विकास तथा जन जागरूकता के कारण राजनीति में रुचि और भागीदारी पूर्व की तुलना में अत्यंत व्यापक हो चुकी है। सोशल मीडिया के द्वारा लोकमत का प्रभाव बहुत ही बढ़ा है। जनतंत्र का निरंतर विस्तार और गहन होते जाना देश की राजनीतिक विकास का प्रमाण है लेकिन यह देश के समक्ष एक बड़ी चुनौती भी है। जनमत की बृहत्तर भूमिका जन संस्कृति की श्रेष्ठता के बिना लोकतंत्र के लिए अनिष्टकर ही सिद्ध होगी। ऐसी स्थिति में देश को एक बौद्धिक समाज में बदलने की आवश्यकता है। लोकमत में अज्ञान और पूर्वग्रह का विलोप एक स्वस्थ और विकासशील जनतंत्र की प्राथमिक आवश्यकता है। 

भारत में व्यापक निरक्षरता तथा निर्धनता के उपरांत भी जनतंत्र की सफलता अधिकतर विशेषज्ञों के लिए एक अबूझ पहेली है। कुछ तथाकथित विद्वान इसका श्रेय ब्रिटिश उपनिवेशवाद को भी देते हैं जो सर्वथा आधारहीन है। यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कॉमनवेल्थ के सभी देश जनतंत्र होते। वास्तव में भारत में जनतंत्र की जड़ें भारत की पुरातन सभ्यता में है। उस प्राचीन सभ्यता में अन्तर्निहित उत्कृष्टता का पूर्ण प्रस्फुटन शिक्षा की सार्वजनीन व्यापकता और श्रेष्ठता के द्वारा ही हो सकता है। यदि यह स्थिति फलीभूत होती है तो एक विकारहीन जनतंत्र भारत में स्थापित होगा जो समस्त मानवता के लिए प्रतिमान होगा। 

जनतंत्र से जुड़ा मुद्दा आर्थिक उन्नति का भी है। स्वशासन विपत्ति का नहीं बल्कि संपत्ति का हेतु है। यदि जनतंत्र आर्थिक उन्नति में बाधक है, विपन्नता की पोषक है, तो यह समझना होगा कि ऐसी व्यवस्था जनतंत्र न होकर जनतंत्र का छद्म है। यह तथ्य रेखांकित करना भी समीचीन होगा कि आर्थिक दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण सम्पदा मानव पूँजी है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति में संस्कार, कौशल और मेधा का निवेश ही आर्थिक उन्नति का आधार है। दूसरे शब्दों में शिक्षा व्यवस्था जनतंत्र का प्राथमिक सरोकार है। 

विशेषकर वर्त्तमान वैश्विक स्थिति में शिक्षा का मुद्दा बेहद नाजुक हो चुका है। संक्रमण के इस दौर में जबकि स्थापित मान्यताएँ टूट रही हैं और मानदंडों को लेकर भारी भ्रम है, उस समय शिक्षा को लेकर किसी तरह की लापरवाही सांस्कृतिक आत्मघात से कम सिद्ध नहीं होगी। यह समय है कि समस्त समाज, विद्वत वर्ग और शिक्षा जगत साथ मिलकर सुसंगठित रूप से शिक्षाव्यवस्था में अभीष्ट परिवर्तन के लिए कार्यशील हो। आज समाज में जीवंत आदर्शों की जरूरत है जो समाज को भटकाव के तमाम राहों से सुरक्षित निकालते हुए एक शिष्ट और सम्यक जीवन प्रणाली की और प्रवृत्त कर सके। ऐसी स्थिति बलपूर्वक नहीं लाई जा सकती है । यह मार्ग शिक्षक वर्ग आपने आचरण से प्रशस्त करेगा। इसके लिए आवश्यक है कि समाज अपना अधिकतम संसाधन शिक्षा में निवेशित करे, श्रेष्ठ प्रतिभाओं को इस क्षेत्र में लाए और पूरी निष्ठा के साथ शिक्षा व्यवस्था के पीछे खड़ा हो। नहीं भूलना चाहिए कि समाज, राष्ट्र और मानवता के मूल्य विद्यापीठों में निर्मित और धारित होते हैं। प्रश्न है कि समाज की मेधा और ऊर्जा को किस तरह से शिक्षा व्यवस्था के परिष्कार हेतु प्रवृत्त किया जाए । कहना अनावश्यक है कि शिक्षा की व्यवस्था सरकार का पारिभाषिक दायित्व है। शासन के स्थानीय, प्रांतीय और केंद्रीय, प्रत्येक स्तर पर इस दायित्व के सम्यक् और उत्कृष्ट निर्वहन हेतु उत्साहपूर्ण निष्ठा होनी चाहिए। यह भी जरूरी है कि प्रत्येक स्तर की सरकार शिक्षा को अपना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य समझे और इस मद पर राजकोष का सर्वाधिक धन व्यय करे। 

यह तथ्य तो निर्विवाद है कि शिक्षा की व्यवस्था सरकार के अस्तित्व का प्रधान ध्येय है लेकिन इस में भी कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि यह मात्र सरकार का दायित्व नहीं है। नागरिक समाज और निजी प्रयासों की भूमिका इस क्षेत्र में समान रूप से वांछित है। पारमार्थिक संगठन इस क्षेत्र में काफी सक्रिय हैं और देश की शिक्षा के विकास में महती भूमिका निभा रहे हैं। आज हालांकि विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत के निजी उपक्रम, जो वैश्विक स्तर पर भारतीय उद्यम के शक्ति को बहुत थोड़े समय में प्रतिष्ठापित कर चुके हैं, को कैसे शिक्षा के विकास से जोड़ा जाए। यह भी आवश्यक कि शिक्षा संस्थानों को सहकारिता के माध्यम से भी चलाया जाए । दूसरे शब्दों में शिक्षा को सहकारी क्षेत्र में भी लाया जाए।  

समकालीन युग वैश्वीकरण का युग है। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक तथा विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र और एक प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की विश्व में वृहत्तर भूमिका की आवश्यकता है। यह भारत के शक्ति संवर्द्धन और आर्थिक उन्नति के लिए भी अपरिहार्य है। भारत के इस लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त उच्चतर शिक्षा में गुणात्मक सुधार, विस्तार और इसका अंतरराष्ट्रीयकरण सर्वाधिक प्रभावी माध्यम हो सकता है। उच्चतर शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण से भारतीयों के अंतरराष्ट्रीय समझ और संपर्क में बढ़ोतरी होगी। विश्व के अन्य विकसित देशों के साथ चलने के लिए भी उच्चशिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीयता शिक्षा प्रणाली में सुधार का प्रधान ध्येय होना चाहिए। अत्यंत तोष का विषय है कि भारत सरकार उच्चतर शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की पक्षधर है और इस दिशा में अग्रसर है। सरकार ने नीति आयोग को विदेशी विद्यालयों के द्वारा भारत में परिसर स्थापित करें हेतु दिशानिर्देश तैयार करने को कहा है । 

प्राचीन भारत समकालीन विश्व में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी था। मध्यकालीन विदेशी दासता के दौर में भारत ज्ञान-गवेषणा के क्षेत्र में पिछड़ गया और दासता भारतीय मानस पर प्रभावी होने लगी। आज समय आ गया है कि भारत विश्वगुरु की अपनी भूमिका को पुनर्जीवित करे और विश्व का अपनी समस्याओं से त्राण पाने में मार्गदर्शन करे। इस उद्देश्य से भी भारत की शिक्षा व्यवस्था का अंतरराष्ट्रीयकरण आवश्यक है। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि यदि भारत सनातन परम्परा में अन्तर्निहित मानवीयता के श्रेष्ठतम मूल्यों को विश्वपटल पर प्रतिष्ठापित करना चाहता है तो उसे स्वयं की उपस्थिति और प्रभाव को विश्वव्यापी बनाना होगा। आज का युग ज्ञान का युग है, व्यापक विचार विनिमय का युग है। इस दौर में भारत के विश्वबंधुत्व का सन्देश सर्वत्र अपनी जगह बना सकता है। भारतीय राष्ट्र की उद्दात्त भावना अन्य जनों को उनकी संकीर्ण राष्ट्रीयता की दायरे से बाहर ला सकती है। 


इस लक्ष्य की व्यापक प्राप्ति के लिए अनेक तरह के उपाय अपनाए जा सकते हैं। पहला यह होना चाहिए कि भारत के सभी विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय हों। भारत के प्रत्येक विश्वविद्यालय की कोशिश होनी चाहिए कि वहाँ हर महाद्वीप और अधिकतम राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व हो। इन विश्वविद्यालयों में ऐसी व्यवस्था हो कि विश्व की श्रेष्ठ प्रतिभाएँ इनमें शिक्षक, शोधार्थी और शिक्षार्थी के रूप में स्थान पाने के लिए प्रतिस्पर्द्धा करें । दूसरा, भारतीय विश्वविद्यालयों तथा शिक्षण संस्थानों को भिन्न देशों में अपनी शाखाएँ, परिसर या स्वतन्त्र विश्वविद्यालय खोलने की स्वतंत्रता और क्षमता होनी चाहिए। तीसरा, अन्य देशों के विश्वविद्यालयों तथा शिक्षण संस्थानों का भी भारत में स्वागत होना चाहिए। चौथा, देश के सभी विश्वविद्यालयों में देश और विदेश के अन्य विश्वविद्यालयों से शिक्षकों और शिक्षार्थियों के आदान-प्रदान की व्यवस्था होनी चाहिए। पाँचवा, देश के शिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षकों को अध्ययन तथा प्रशिक्षण हेतु विदेशी विश्वविद्यालय भेजे जाने चाहिए। इसके साथ ही भारतीय छात्रों को विदेशों में पढ़ने के लिए प्रोत्साहन और सहायता दी जानी चाहिए। 

शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण से भारतीय छात्र सही मायने में राष्ट्रीय और वैश्विक दृष्टिकोण विकसित कर सकेंगे। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीयता समय की आवश्यकता है। वैश्वीकरण के इस युग में अर्थव्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीयकरण अनिवार्य है। इस तरह की प्रतियोगिता में बने रहने के लिए उच्च शिक्षा का भी अंतरराष्ट्रीयकरण आवश्यक है। यह विश्व बाज़ार को समझने और वैश्विक संपर्क का आधार होगा। उदाहरण के लिए किसी अंतरराष्ट्रीय प्रबंध संस्थान के स्नातकों का अर्थव्यवस्था का ज्ञान और व्यक्तिगत संपर्क स्वाभाविक रूप से अंतरराष्ट्रीय होगा, जो वैश्वीकरण के युग में प्रबंधकों की सफलता का अपरिहार्य सूत्र है। आर्थिक कारणों के इतर भी इस तरह की व्यवस्था की सकारात्मकता व्यापक है। 

पूरी चर्चा का प्रधान ध्येय इस आवश्यकता को इंगित करना है कि शिक्षा और शिक्षक की भूमिका समाज और राष्ट्र के उत्थान में आधारभूत है। शिक्षा और शिक्षकों को दासता के दौर में समाज के अग्रदूत की भूमिका से अलग कर दिया गया था। आज उस स्थिति को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

- नीरज कुमार झा 

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