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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

आँखें

उथली आँखें लोलुपता की
धंसी बेचारगी की आँखें
सही जगह की आँखें
बेपरवाही की
आँखें  दे रहीं गवाही
आज की हालात के

- नीरज कुमार झा 

अंधेरा (कविता)

जगमगाहट ऐसी
कि नज़रें ठहरती नहीं
अंधेरा ऐसा कि
खो जाता अहसास
आँखों के होने का ही
कहीं कैद रोशनी अंधेरे में
कहीं झीनी रोशनी के पीछे ठोस अंधेरा
याद आती है ऐसे में
पसरी दूर-दूर तक
शांत शीतल चाँदनी

- नीरज कुमार झा


मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

यह तरक्की कैसी

नफ़रत से आँखें फेर लो
बेशर्मी की बेहिसाब अमीरी ऐसी
नज़रें ना मिला सको
बेज़ार करती गरीबी ऐसी
यह  तरक्की कैसी कि
नैतिकता का निकल गया फलूदा
और मरणासन्न है मानवीयता

- नीरज कुमार झा

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

कल्पना का सच

अस्तित्व का अर्थ समझना
संभव नहीं,
यह तय है। 
अस्तित्व का कोई सत्य नहीं,
यह विचित्र सत्य है। 
अर्थहीनता के इस अनादि अनंत विस्तार में
विचरता हमारा विवेक भयाकुल है। 
भयाकुल मन रचता है
कल्पना का सच। 
लेकिन सच की कल्पना का संबल
जो है
जो हमारी जद में  है
कभी-कभी उसे ही उजाड़ देता है। 
यह नहीं होना चाहिए। 

- नीरज कुमार झा