मेरा पक्ष
नीरज कुमार झा
मंगलवार, 19 मार्च 2024
Conversations
Niraj Kumar Jha
रविवार, 17 मार्च 2024
बड़ा आदमी
सामाजिकता
स्कैन्डिनेव़िअन देशों में सामाजिकता अत्यंत न्यून है। वहाँ व्यक्ति हेतु सुरक्षा और सुविधाएँ बहुत ही अच्छी हैं। वहाँ लोगों को एक-दूसरे की जरूरत ही नहीं है जैसा कि सार्वजनिक अभिकरण उनकी हर जरूरत को बखूबी पूरा करते हैं। इन देशों में लोग सम्पन्न हैं और उनका जीवन निरापद है। लेकिन मेरा मानना है कि सामाजिकता का अभाव इस स्थिति में भी आदर्श नहीं है। व्यक्ति एकाकीपन में जीवन की सार्थकता प्राप्त करे, अस्वाभाविक प्रतीत होता है।
भारत के वर्तमान दौर में सामाजिकता को सघन, स्वस्थ और सुखद बनाने की आवश्यकता है। इसकी कमी के कारणों और इसमें विस्तार हेतु उपायों को लेकर व्यापक विमर्श होना चाहिए। मैं इस विषय (स्थिति, कारण, और समाधान) पर अपने विचारों को क्रमशः लिखता रहूँगा। मित्रों से आग्रह है कि इस विषय पर विचार करें और उन्हें साझा करें।
नीरज कुमार झा
गुरुवार, 14 मार्च 2024
धार्मिक, रीलिजस नहीं
इस विषय पर अधिकतर लोग भ्रमित रहते हैं। इसका कारण है कि एक बात धर्म और रीलिजन में दोनों में केंद्रीय महत्व का है, वह आस्था है।हालाँकि धार्मिक होने के लिए आस्थावान होना अनिवार्य नहीं है।
जिसको लेकर अंतर है वह मानव मस्तिष्क का एक दूसरा आयाम, विवेक, है। धर्म में विवेक और आस्था सहचर हैं और रीलिजन मे विवेक आस्था का अनुचर है। विवेक की स्थिति दोनों को विपरीत बनाता है।
नीरज कुमार झा
रविवार, 10 मार्च 2024
Democratisation of Knowledge
This vital aspect of existence so democratised along with others strengthens democracy in a manner, which we cannot make out right now. We may be in a transformational phase little realising it. We can see right now a definitiveness in the political cultures in the world. This may be an age of denial of old consensus or its lack wherein the fresh consensus remains elusive. The world lacks a common set of values leading to any collective idea of good. The age has yet to give birth to its philosophers. We will have to wait.
Niraj Kumar Jha
शुक्रवार, 8 मार्च 2024
दार्शनिक
जन अथवा समाज मंगल गंभीर और जनहितैषी दार्शनिकों की उपस्थिति की मांग करता है।
हालाँकि दर्शन के साथ गंभीर और जनहितैषी विशेषण अनावश्यक हैं, लेकिन दर्शन के नाम से जो चलन में रहता है, उसको लेकर सचेत करने के लिए यहाँ इन विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
गंभीर इसलिए कि एक तथाकथित दार्शनिक हवाई किले बनाने वाला हो सकता है; बिना इतिहास बोध, समाज और मानवीय प्रकृति की समझ के वह निरर्थक स्वप्नों का द्रष्टा और प्रसारक हो सकता है। ऐसे दार्शनिक बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और समाज अपनी तमाम विसंगतियों के साथ यथास्थिति में रहता है। किसी भी साधन-संपन्न संप्रभु देश में विपन्नता की विद्यमानता इस तरह की कुबुद्धि के आधिक्य का ही प्रमाण है।
दूसरा कि अनेक आधिकारिक विद्वान द्वारा बाह्य संस्कृति से उत्पन्न विचारधाराओं को स्वयं के परिवेश में अनुकूलन की क्षमता की बिना परख किए उसके आरोपण की पैरोकारी करते हैं। यहाँ तक कि जहाँ से उनका आयात किया गया है, वहाँ भी उसे स्वीकार नहीं किया गया हो। ऐसे विद्वानों को भी दार्शनिक की श्रेणी में रखा जाता है। विदेशीकृत विद्वान अपनी गठरी में संग्रहीत सामग्रियों को लेकर उलझन का प्रदर्शन कर भी इस श्रेणी में स्थान पा लेते हैं।
जनहितैषी इसलिए कि दर्शन संज्ञा का दुरुपयोग होता है। कोई व्यक्ति अस्तित्व के अज्ञेय पक्षों को लेकर भय और मानवीय मानसिकता में अंतर्निहित दुर्बलताओं को आधार बनाकार शब्दाडंबर अथवा भाषाई जाल के माध्यम से लोगों को भ्रमित कर सकता है। मानव इतिहास में मानव निर्मित त्रासदियों की भरमार ऐसे ही विकृत बुद्धिप्रयोगों का दुष्परिणाम रहा है।
दर्शन और विज्ञान में अंतर है। दर्शन की प्रकृति समग्रता मूलक अथवा व्यापक दृष्टि है। इस दृष्टि की व्यापकता अज्ञेय और ज्ञेय का भी मेल कराती है। इसका बिन्दु संकेन्द्रण भी व्यापक दृष्टि का ही सघन संकुचन है। यह जीवन को अर्थयुक्त बनाती है। विज्ञान प्रधानतया एकलता से व्यापकता की ओर जाता है और इसकी मूल प्रकृति संकेन्द्रण की है।
दर्शन मानव जीवन का विज्ञान की तुलना में अधिक सशक्त मार्गदर्शक है। दर्शन विज्ञान को अधिगृहीत रखता है। विज्ञान की स्थिति दर्शन सेवी की है।
यह दर्शन ही है जो मानव को बर्बर से सभ्य बनाता है, और दर्शन के अभाव में भौतिक तथा वैज्ञानिक साधनों से युक्त होते हुए भी समुदाय प्रवृत्ति और आचरण से असभ्य ही बने रहते हैं। ऐसा नहीं लगता है कि मानव बिना दर्शन के हो। वास्तव में बर्बरता प्रवृत्ति होती है, जो दर्शन की जगह काम करती है। यही प्रवृत्ति दर्शन विकृति का स्रोत और दर्शन की चुनौती है।
भारत ने दर्शन में महती योगदान दिया है। वसुधैव कुटुंबकम, सर्वमंगल, जीवन की विविध शैलियों का अभिनंदन, शांति और सुबुद्धि हेतु सतत प्रार्थना इस दर्शन की अनन्य सीखें हैं। आज भारत अपनी मौलिक मेधा को जागृत कर पुनः इस नए युग में मानवहित के पोषण में भूमिका निभाए, यह अभीष्ट है।
नीरज कुमार झा