सन् २०१४ के आम चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने राष्ट्रवाद का एक नया अध्याय लिखा है। इस बार भारतीयों ने जाति, पंथ, क्षेत्र तथा अन्य संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर एक राष्ट्र के रूप में मतदान किया है। यह जनमत किसी भावनात्मक आवेग, साम्प्रदायिक उन्माद या जातीय समीकरणों की रणनीति का परिणाम न होकर राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रोत्थान के संकल्प का उद्घोष है। गत वर्षों में भारत अन्याय, भ्रष्टाचार और सुरक्षा को लेकर जिस तरह एकजुट हुआ वह इस संकल्प के दृढ़ीकरण का चरण था। आम चुनावों  में एक सम्पन्न  और सशक्त राष्ट्र के निर्माण का जनादेश देकर भारत ने उस एकजुटता का प्रामाणिक प्रदर्शन किया है ।  भारतीय जन स्वयं एक राष्ट्र के रूप सक्रिय हो चुका है। वह पूर्व की तरह अब रैयत अथवा असामी नहीं है जैसा वह औपनिवेशिक और सामंती व्यवस्था के अंदर ढला  था। वह अब नेतृत्व का अनुगामी भी नहीं है। वह स्वयं राष्ट्र है। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक जनराष्ट्र के उदय का  दशक है। भारत जनसमूह न रहकर स्वयं एक जीवंत महाकाय बन गया है।  दृढ़निश्चयी वह महाकाय अब गतिमान है, जिसे रोकना असंभव है।
राष्ट्रवाद के सिद्धांतकार हैंस कोन के अनुसार राष्ट्रवाद एक विचारधारा  है जिसके अंतर्गत राष्ट्र-राज्य के प्रति व्यक्ति की निष्ठा एवं समर्पण व्यक्ति और समूहों के अन्य हितों के ऊपर होती है। इस तरह की राष्ट्रीयता का प्रथम दर्शन १७ वीं शताब्दी के इंग्लैंड में हुआ था जब गृहयुद्ध (१६४४-१६४८) के दौरान पार्लियामेंट के समर्थकों ने राजा के वफादारों को हराया था, राजा चार्ल्स प्रथम का वध किया था तथा राजशाही, पार्लियामेंट के उच्च सदन और राष्ट्रीय गिरजा का अंत कर दिया था। यह  प्यूरिटन क्रांति,  हैंस कोन  लिखता है, लोगों को नवीन गरिमा की ऊँचाई पर ले गया जहाँ वे सर्वसाधारण नहीं रहे, वे इतिहास की निर्मिति न रहकर देश बन गए, इतिहास के  निर्माता बन गए, जो चयनित हुए महान कार्यों के निष्पादन के लिए, जिसमें प्रत्येक का आवहान किया गया था बराबरी से और व्यक्तिगत रूप से भागीदार बनने के लिए। यह आधुनिक राष्ट्रवाद का प्रथम दृष्टान्त था। हालांकि  वर्ष १६६० के रेस्टरेशन के साथ इंग्लैंड में राजा और बिशप आदि फिर वापस आ गए और राष्ट्रीयता की भावना एक लम्बे समय के लिए दब गयी ।
सामान्यतः राष्ट्रीयता प्रतीकों के माध्यम से परिलक्षित होती है। ध्वज, गीत तथा  राष्ट्रोत्सव आदि ऐसे ही प्रतीक हैं। इस आवरण के अंदर असल राष्ट्र हालांकि जागृत, संकल्पित और सक्रिय  लोग हैं। उदासीन और निष्क्रिय समुदाय राष्ट्र का निर्माण नहीं करते हैं। अपनी नियति पर नियंत्रण रखने के लिए प्रतिबद्ध और क्रियाशील जन ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं। गत वर्षों के आंदोलनों में और  २०१४ के चुनावों में इस तरह की प्रतिबद्धता दिखी है। यह नवराष्ट्रवाद है; लोगों ने राष्ट्र के रूप में अपने उत्तरदायित्व को पहचाना है और और उसको निभाने की कोशिश की है।  इसमें सबसे क्रांतिकारी एक ऐसे विकल्प की सफल खोज रही जो एक तरफ औपनिवेशिक मानसिकता, परंपरा और प्रणालियों की वाहक नहीं है और दूसरी तरफ सामंती वंशवाद से मुक्त है।
किसी देश की  ताक़त हालांकि उसके नागरिकों की मेधा, ऊर्जा, सृजनात्मकता तथा साहस के अधिकतम विस्तार पर निर्भर करती है। एक कहावत है कि  अकेला चना भाड़  नहीं फोड़  सकता है। देश के उत्थान की शर्त है अबाधित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ सामूहिक प्रयास। देश के विकास के लिए व्यक्तिगत उद्यम के साथ सामाजिक सहयोग की भी आवश्यकता है। सामजिक सहयोग औपचारिक रूप से राजकीय सेवाओं के माध्यम से उपलब्ध होती है। शासनतंत्र सामाजिक सहयोग की औपचारिक व्यवस्था है। वर्ष १९९१ में भारत  में उदारीकरण के नीति के  अपनाने के साथ आर्थिक आज़ादी की शुरुआत हुई थी जैसे कि  १९४७  में राजनीतिक आज़ादी की हुई थी।  भारतीय उद्यम बंधन ढीले होते ही विश्व में अपना प्रभाव दिखाने लगी और नवउपनिवेशवाद का विमर्श धीरे-धीरे बेमानी हो गया  है।  भारतीय उद्यम के मार्ग में अभी भी बहुत सारे अवरोध हैं जिन्हें हटाने की आवश्यकता  है लेकिन अब समय आ गया है सांस्कृतिक आज़ादी का।  भारत में आज वह आत्मविश्वास जग गया है जिससे वह पश्चिम के बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व से मुक्त हो सके। इसका स्पष्ट संकेत तब मिलता है जब  देश का शीर्ष नेतृत्व स्वभाषा में अपना पक्ष वैश्विक मंचों पर रख रहा होता है।
भारतीय राष्ट्रवाद का यह नया स्वरूप इसकी वर्त्तमान  आशावादिता और उज्ज्वल  भविष्य का आधार है । यह आधार इतना ठोस है कि यह देशी कुबुद्धि या विदेशी वैमनस्य से हिल नहीं सकता है। इसका ठोस होने का कारण है भारत का बढ़ता मध्यवर्ग, जो आज प्रायः देश की आबादी का पाँचवाँ  हिस्सा है। यह वर्ग बहुत हद तक जात, जमात और ज़ज्बात  से परे जाकर सोच सकता है।  इस वर्ग की सबसे बड़ी चिंता देश की आर्थिक स्थिति है और यह वर्ग पिछड़े, गरीब और वंचित वर्गों के हितों  का हिमायती है। देश की दूसरी सबसे बड़ी शक्ति यहाँ का स्वतन्त्र प्रेस है जो सतत अधिष्ठान  की  प्रत्येक कुचेष्टा या कृत्य के प्रतिकार के लिए सन्नद्ध रहता है। यहाँ ७*२४ खबरिया चैनलों का उल्लेख जरूरी है जो अहर्निश प्रत्यक्ष  रूप से सार्वजनिक जीवन में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं। इसी क्रम में है सूचना क्रान्ति प्रदत्त  सोशल मीडिया, जिसने लोगों के बीच संपर्क और सहयोग सुनिश्चित करने में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। तीसरी ताक़त भारत का जनतंत्र है।  भारतीय राजप्रणाली के अनेक अंगों ने, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक तथा चुनाव आयोग  महत्वपूर्ण हैं, देश की  गिरावट रोकने में बहुत ही नाजुक भूमिका निभाई है और निभा  रहे हैं।  अंत में भारत की सनातन संस्कृति और परम्पराओं का उल्लेख अत्यावश्यक है जो भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है, जिसके मूल्य भारत में  जनतंत्र की स्थापना तथा स्थायित्व के रूप में साकार हुए हैं और जो  मानवीयता के सरोकारों के आधार पर  वैश्विक व्यवस्था के पुनर्निर्माण की क्षमता रखता है। सनातन धर्म की वाहिका यह सभ्यता अपनी अस्मिता को दृष्टिगत कर चुकी है और वैश्विक समाज में अपने महती भूमिका के निर्वहन हेतु अग्रसर है। 
- नीरज कुमार झा
(स्वदेश, दीपावली विशेषांक, २०१४, पृ. १२६-१२७.)
 
