पूर्व में भाषाई विविधताएँ दूरियों के द्वारा पोषित थीं, किंतु अब मानव-संपर्कों के अनेक आयामों में दूरी शून्य अथवा अत्यल्प हो गई है। विश्व में वह दिन दूर नहीं जब कोई एक ही भाषा पूरी मानवता की मुख्य अथवा औपचारिक भाषा होगी। अन्य भाषाएँ उस महाधारा में मिलने वाली लघुधाराएँ बनकर रह जाएँगी। प्रयास इस दिशा में होना चाहिए कि हिंदी उसी भाषा के रूप में स्थापित हो। इसके लिए सोद्देश्य, लक्ष्याभिमुख, नियोजित रणनीतिक प्रयास और निवेश की आवश्यकता होगी।
इस प्रयास से, पूर्णरूपेण फलीभूत न होने पर भी, इतना तो सुनिश्चित है कि भविष्य की विश्वभाषा कोई भी हो, कैसी भी हो, वह हिंदीभाषियों के लिए अधिक बोधगम्य होगी और उनके अनुकूल भी।
इसके साथ ही, हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता की संभाव्यता का आधार तभी बनेगा जब हिंदी क्षेत्र वैश्विक स्तर पर सुसंस्कृत और सम्पन्न हो; वस्तुतः वही भाषा दुनिया सीखती है, जिसके बोलने वालों का विश्वव्यापी प्रभाव हो।
जो भी हो, भावनात्मक रंजन का महत्व तो है ही।
नीरज कुमार झा