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रविवार, 12 जुलाई 2009

प्रकाश को परखना

तिमिर तुमने मिटाया नहीं
सिर्फ सफेदी है फेरी
उठते हैं, ठोकर खा गिरते हैं
उजियारे के भ्रम में
चलना भी हो गया दूभर
कालिमा ही क्या थी बुरी
टटोल के ही सही
चलते तो थे
यूं तो न गिरते-पड़ते थे
ठोकर खा-खा चोटिल तो न होते थे
लेकिन कालिमा भी क्या होती अच्छी
ये तो बातें हैं केवल सुनाने को
नकली उजियारे के साहूकारों को
अंधकार कैसे हो सकता स्वीकार
भले ही उजाले के नाम पर
कितना भी हो धोखा
रखना है मगर ध्यान इतना
कि संभल कर है चलना
जरूरी है प्रकाश को भी परखना



- नीरज कुमार झा

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