नीरज कुमार झा
स्लमडॉग मिलिनेयर एक ब्रिटिश फिल्म है. इसके निर्माता क्रिश्चन कोल्सन तथा निर्देशक डैनी बॉयल ब्रिटिश नागरिक हैं और वितरक फ़ॉक्स सेंचुरी पिक्चर्स तथा अन्य अमरीकी कम्पनियाँ हैं. इस फिल्म को फरवरी में आयोजित ८१ वें अकाडमी अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के सहित आठ आँस्कर पुरस्कारों से नवाजा गया. इस फिल्म को गोल्डेन ग्लोब तथा बाफ्टा पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है. इसके अलावा अन्य अनेक पुरस्कार इस फिल्म को मिले हैं. वास्तव में पश्चिम ने इस फिल्म पर पुरस्कारों की झड़ी लगा दी है. इस फिल्म की कहानी भारत की है - एक झोपड़पट्टी के नवयुवक की - जो जिन्दगी के तमाम संघर्षों एवं त्रासदियों को झेलता हुआ अंततः टेलीविजन पर आयोजित सामान्य ज्ञान पर आधारित कार्यक्रम "कौन बनेगा करोपति" में २ करोड़ रूपये जीतता है और अपनी छिनी प्रेमिका को भी पा लेता है. इस फिल्म का फिल्मांकन, जैसा कि स्वाभाविक है, भारत में हुआ है और भारतीय कलाकारों तथा फिल्म निर्माण से जुड़े अन्य दक्ष हाथों का उपयोग इस फिल्म में हुआ है. चूंकि इस फिल्म की कहानी भारत की है, इसके अधिकतर कलाकार भारतीय हैं और ए आर रहमान का जादुई संगीत इसमें है तो पश्चिम से मान्यता तथा सराहना के लिये तरसते भारतीय इस फिल्म को अपने देश की फिल्म मान बैठे हैं. अकाडमी अवार्ड्स में इस फिल्म की बम्पर सफलता के बाद देश में ऐसी खुशी देखी गयी कि मानो भारत ने ओलम्पिक खेल में चीन की तरह सर्वाधिक पदक जीत लिया हो. अंत में डैनी बायल को कहना पड़ा, हालांकि उन्होंने ऐसा पूरी विनम्रता के साथ कहा, कि स्लमडॉग एक ब्रिटिश फिल्म है, भारतीय नहीं.
भारत में इस फिल्म को लेकर इतना उल्लास क्यों है जबकि यह भारतीय फिल्म नहीं है? इस तरह का उल्लास तभी जायज होता यदि इस फिल्म में भारत का महिमामंडन किया गया होता. इसमें भारतीय समाज, इतिहास या परम्परा के किसी भी पक्ष का ऐसा चित्रण होता जो भारतीय सभ्यता की महानता को दुनियाँ के सामने लाता. ऐसी फिल्म रिचर्ड एटनबरो की गांधी थी जिसे भी आठ आस्कर पुरस्कार मिले थे. इस फिल्म में गांधीजी के जीवन एवं सन्देश का सशक्त चित्रण है जो पूरी दुनियाँ को मानवता के इतिहास में उनके अहम् योगदान को समझने में मदद करता है. इसके विपरीत स्लमडॉग भारत के सम्बन्ध में जितनी भी बुराइयां हमारे सामान्य ज्ञान के हिस्से हैं, उन सभी को बलात एक कहानी के नाम पर इस फिल्म ठूसा गया है. वास्तव में इस फिल्म में कोई कहानी है ही नहीं बल्कि कहानी के बहाने भारतीय जीवन के काले दागों को पूरी भारतीयता का सच बनाकर सामने रखा गया है.
जो भी हो स्लमडॉग कोई गाली नहीं हैं. यह शब्द अंडरडॉग के समान्तर के रूप में गढ़ा गया है जिसका अभिप्राय कमजोर, वंचित तथा पराजित से है. भारत में इस फिल्म के नाम को लेकर जो विरोध हुआ है वह स्लमडॉग के अर्थ की नासमझी से पैदा हुआ है. हालांकि किसी विदेशी शब्द के भावार्थ को समझना हमारी समस्या नहीं है. वैसे भी गुलामी के दिनों में अंग्रेज हमसे जिस तरह का व्यवहार करते थे उससे इस शब्द का गलत अर्थ लगाना बिलकुल स्वाभाविक है. सच तो यह है कि स्लमडॉग शब्द भले ही गाली नहीं हो लेकिन यह पूरी फिल्म अपने-आप में गालियों की टोकरी है. यह फिल्म दिखाना चाहती है कि भारत अभी भी भिखारियों, चोर-उचक्कों, दंगाइयों, ठगों, अपराधियों, बच्चों तथा स्त्रियों के देह-दोहन करने वाले दरिंदों, ढोंगियों, प्रसिद्ध व्यक्तियों के आकर्षण में पागलों तथा बर्बर व्यवस्था का देश है, जहाँ नैतिकता तथा क़ानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है और मात्र अपराधी किस्म के लोग यहाँ फल-फूल रहे हैं. यह चित्र पूर्ववर्ती औपनिवेशिक स्वामियों के द्वारा भारत तथा भारतीयों के चित्रणों की पुनरावृत्ति है जिनमें भारतीयों को धूर्त, नकारा, हत्यारा और बलात्कारी बताया जाता था.
यद्यपि इस फिल्म को मिले पुरस्कार भारतीयों के भी हिस्से में आये हैं लेकिन भारत को मिला गौरव परावर्तित है. दैदिप्यमान कोई और हो रहा है और उससे जो रोशनी हम पर पड़ रही है; उसको लेकर हम फूले नहीं समा रहे हैं. जब कहा जाता है कि भारत गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है तो सामान्यजन उसका व्यवहारिक पक्ष समझ नहीं पाते हैं. इस फिल्म को मिली सफलता को लेकर भारतवासियों को आह्लाद उस मानसिकता का बेहतरीन उदाहरण है. एक स्वामी की उपलब्धि पर उसके दास स्वामी से भी ज़्यादा खुश होते हैं; यह दासता की मानसिकता की विशिष्टता है. भारत की विद्रूपताओं का फूहड़ तथा साथ ही वीभत्स चित्रण में भी एक प्रतिष्ठित फिल्म टिप्पणीकार को 'दिव्य' के दर्शन हुए.k आस्कर के चकाचौंध के कारण यह दृष्टिदोष उत्पन्न हुआ है, यह तो संभव है ही, लेकिन अमेरिका की एक संस्था ने स्लमडॉग को यदि श्रेष्ठ माना है तो भारतीय टिप्पणीकार के द्वारा उसमें दैवी आभा दिखना बाध्यकारी हो जाता है. एक अखबार ने लिखा कि "जय हो" देश का राष्ट्रगान बन चुका है. रहमान श्रेष्ठ संगीतकार हैं और गुलज़ार गीतकार. उनकी प्रतिभा के अनुरूप यह गीत भी उत्कृष्ट श्रेणी का है लेकिन यह गीत न उनके श्रेष्ठतम रचनाओं में से है और न ही भारत के संगीत संसार की महानतम उपलब्धियों में से. फ़िर भी यदि यह गीत आस्कर से सम्मानित हुआ है तो यह राष्ट्रगान या राष्ट्रगान के समकक्ष हो गया है जैसा कि भारत का एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक मानता है.
हमारे नेताओं की प्रतिक्रियाएं तो और भी अचरज में डालने वाली है. आज हमारे नेतृत्व में शामिल विभिन्न दलों के लोगों ने तथा उनके दलगत, विचारधारात्मक पूर्ववर्तियों तथा अनेक के माँ-बाप, दादा-दादियों ने, उनके रिश्तेदारों ने पूरे देश पर या इसके हिस्सों पर शासन किया है या कर रहे हैं. उनमें से किसी ने भी देश से इस बात की माफी नहीं माँगी कि यदि देश में इस तरह की जहालत है और जिसे विदेशों में पूरी नंगई के साथ प्रदर्शित किया जा रहा है तो इसके लिये वे उत्तरदायी हैं. फिल्म में प्रदर्शित कथाक्रम से भी अधिक अप्रिय तथ्य यह है कि स्लमडॉग की सफलता को लेकर देश में उल्लासमय तथा उत्सवी माहौल हीन भावना से ग्रस्त राष्ट्रीय भावना का परिचायक है.
इस फिल्म की कहानी को यदि एक लोटा माना जाए तो उसकी पेंदी में सुराख ही सुराख है. मुख्य पात्र में जिस तरह की संवेदनशीलता, वाकपटुता, स्मरण तथा विवेचना की शक्ति दिखाई गयी है, वह इस तरह की पृष्ठभूमि के किशोर के लिये असामान्य है. एक टिप्पणीकार ने इस फिल्म को बूढ़े बालक की कहानी बतायी है. अर्थात् ऐसे बालक की कहानी जो अपने अनुभवों के कारण वृद्ध हो चुका हो. उक्त महोदय को इस बात की समझ बिलकुल नहीं है कि कंगाली, क्रूरता, और जीवन के लिए दैनंदिन संधर्ष करने वाले लोग बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं बल्कि उनकी संवेदना कुंद तथा सम्प्रेषण क्षमता अविकसित रह जाती है. उनमें जीवन रक्षा का सहज बोध अवश्य तीक्ष्ण हो सका है लेकिन इस तरह के किसी बालक को अमेरिका के किसी राष्ट्रपति का नाम याद रहे, यह असंभव सा है. भारत में आयोजित 'कौन बनेगा करोड़पति' गेमशो के मेजबान अमिताभ बच्चन थे. उसी तरह के अन्य शो भी हुए जिनमें मेजबान भारतीय सिनेजगत के नामीगिरामी कलाकार थे. क्या इनमें से किसी पर भी किसी अंडरडॉग (अपेक्षाकृत गरीब) सहभागी के प्रति उपहासात्मक या धूर्तता की प्रवृत्ति होने का आरोप लगाया जा सकता है? पटकथा में इस तरह की अनेक त्रुटियां हैं और जिनकी चर्चाएँ भी हुई हैं जो इसे अस्वाभाविक बना देती हैं.
इस फिल्म के कथानक में भारत के सम्बन्ध में जिनती भी बुरी बातें महानगरीय परिवेश में एक औसत शिक्षित व्यक्ति जानता है, उनको एक बेहद ही कमजोर कड़ी में पिरोया गया है. महानगरीय शिक्षण संस्थानों में जिस तरह की शिक्षा दी जाती है, देश पर हावी तथाकथित सेक्यूलर मीडिया जिस तरह से तथ्यों को रखती हैं, उनसे इस तरह के लोगों को भारत की तस्वीर तो दिखती है लेकिन समझ उस तस्वीर की कैनवास पर पुते रंगों जितनी ही गहरी होती है. फिल्म में दिखाई तमाम विद्रूपताएं भारत में मौजूद हैं और इनसे ज़्यादा गंभीर समस्याएँ भी है लेकिन यह फिल्म उन मुद्दों को एक सामान्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की मानसिकता, समझ, सोच तथा आकांक्षाओं की दृष्टि से देखती है. यह फिल्म उस वर्ग का वास्तविक चित्रण नहीं करती जिसपर कैमरा फोकस है बल्कि तमाम आवरणों के अंदर यह एक करिअरिस्ट मध्यवर्गीय छात्र का वर्तमान भारत की समस्या पर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किया गया लेख ही दिखता है. यह कहानी भारतीय मध्यवर्ग की समझ में आती है, उसे वास्तविक लगती है, उसे अपील करती है, क्योंकि यह कहानी उसकी समझ का अनुमोदन करती है. 'कौन बनेगा करोड़पति" जैसे टेलीविजन शो' देश पर हावी सोच का ही प्रतिबिम्बन करती है जो एक बेतरतीब तथा निरूद्देश्य सूचनाओं के पिटारे को शिक्षा का मूल मानती है.
इन खामियों को सिनेमैटिक लाइसेंस के रूप में नजरअंदाज किया जा सकता है. यह भी सही है कि फिल्म में दिखाई गयी सारी बातें अलग-अलग ग़लत नहीं हैं, कुछ बतौर अपवादस्वरूप तथा कुछ सामान्य रूप से, लेकिन इन सब तथ्यों का एक जगह तथा एक साथ होना यथार्थपरक नहीं है. इस फिल्म को विदेशी जब देखेंगे जिनकी जानकारी स्वाभाविक रूप से भारत के विषय में अत्यल्प से शून्य के बीच होगी और ऑस्कर तथा अन्य पुरस्कारों के बाद ज्यादा देखेंगे और एक यथार्थ का चित्रण करने वाली फिल्म के रूप में देखेंगे तो उनके मस्तिष्क में जो भारत की घिनौनी तथा डरावनी तस्वीर बनेगी, उसे मिटने में दशकों लग जाएंगे.
इस फिल्म का छिपा चेहरा भी है. वास्तव में पाश्चात्य जगत भारत को उसकी औकात बता रहा है. भारत भले ही आणविक शक्ति के रूप में स्वीकृति पा ले, चाँद पर यान भेज दे, लक्ष्मी मित्तल यूरोप की आर्सेलर कंपनी खरीद ले, रतन टाटा कोरस, जगुआर तथा लैंडरोवर जैसी कंपनियों के तारणहार बन जाए, उसके पेशेवर विश्व की कंपनियों में अपना सिक्का चलाएँ, पूरे विश्व को बेजार करने वाली आर्थिक मंदी उसे विचलित न कर सके, लेकिन देखो ये है तुम्हारी हकीकत ! उनकी यह कोशिश किसी सुविचारित योजना का हिस्सा नहीं है. वैसे भी इस फिल्म की मूल कथा एक भारतीय राजनयिक द्वारा रचित है. जो बात समझने की है कि उन्हें यह कहानी इसलिये जमी कि भारत को लेकर उनकी कुंठाएं हैं और उनसे जनित अनवरत उठ रहे टीस पर यह कथानक मलहम लगाती है. यह बात उन्हें गले नहीं उतर रही कि हाल गयी सदी के पूर्वार्द्ध तक उनके चाकरों का देश आज जनतंत्र का परचम फहराता हुआ उस गति से आगे बढ़ रहा है कि निकट भविष्य में वह हर मामले में न सिर्फ़ आगे होगा बल्कि बहुत ही आगे होगा. इस कहानी में हर प्रश्न के उत्तर के पीछे की कहानी को और भी माध्यम से भी बताया जा सकता था. मुख्य पात्र यह कहानी किसी पत्रकार को भी बता सकता था, इसी दोस्त को बता सकता था, लेकिन वह बताता है पुलिस के बेरहम थर्ड डिग्री के आगे. यदि ऐसा नहीं होता तो मानवाधिकारों को ताक पर रखकर काम करने वाली भारत की पुलिस की बात कैसे सामने आती ! इस फिल्म में एक संवाद मारके की है. फिल्म का एक पात्र, जो स्वयं अपराधी है और संगठित अपराध में लिप्त एक सरगने के लिये काम करता है, कहता है कि आज तेज गति से बढ़ रहा भारत वैश्विक व्यवस्था का केंद्र बन रहा है और हम उस केंद्र के केंद्र में हैं. यह भारत की उपलब्धियों को मापने का पैमाना !
हम उस सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं जहाँ मानवीयता उस ऊंचाई तक पहुँच चुकी थी जिसे छूना आज भी तमाम संस्कृतियों के लिये असंभव चुनौती है और हमारा उज्ज्वल भविष्य हमें अपने वर्त्तमान से ऊपर उठाने को सामने हाथ बढ़ाए खड़ा है. ऐसे में यह बिलकुल नहीं होना चाहिए कि कोई हमें पतित कहे और हम खुशी के मारे नाचने लगे बल्कि अभीष्ट यही है कि पूरे विश्व में महान से अधम तक की पहचान का आधार हमारा अनुमोदन हो.