समाज से,
व्यवस्था से,
दूसरों से,
और उम्मीदें
बेहतरी की
हमारी मानसिकता के
अहम् हिस्से हैं.
लेकिन हम नज़रअंदाज कर देते हैं
पूरी तरह कि
हमारी हर उम्मीद बेमानी है
बिना हमारी सक्रियता के.
हमारी उम्मीदें मांग करती हैं
हमारे प्रयासों की.
सोचना है हमें कि
जरूरत हमारी है तो
पूरी करनी होंगी हमें ही.
व्यक्तिगत आवश्यकताएँ
हम पूरी करते हैं स्वयं ही.
सार्वजनिक हित के लिये भी
सर्वजन की इकाई के रूप में
प्रयास होंगे हमारे ही.
इंतजार दूसरों के पहल की
इंतजार ही रहेगा.
कुछ तो करें हम भी
यदि चाहते हैं अच्छा समाज.
और यदि नहीं कर पाते कुछ भी
तो भी इतना तो कर ही सकते हैं
कि जितना बन पड़े
करें न बुराई
और न बने भागीदार दूसरों की
बुराइयों में.
- नीरज कुमार झा
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
सुंदर और प्रभावी अभिव्यक्ति...... हर पंक्ति अर्थपूर्ण ....
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर सटीक अभिव्यक्ति..बहुत सही कहा है कि दूसरों से अपेक्षायें करने के बजाय हम स्वयं प्रयत्न करें..
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