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गुरुवार, 21 जुलाई 2011

मैं कवि नहीं कौआ हूँ

मैं कवि नहीं कौआ हूँ
जब भी मौका मिले 
कांव-कांव करने लगता हूँ  
वैसे मारा-मारा फिरता हूँ 
कुछ भी खा लेता हूँ 
जूठा-कूठा
सामिष-निरामिष 
मुर्दा-ज़िंदा
सड़ी-गली लाशें 
गिद्धों-कुत्तों से लड़कर खाता हूँ 
अंडे, छोटे पंछी और चूहे
भी डकार जाता हूँ 
जिन इंसानों के मारे भगता हूँ 
मरा या मरणासन्न भी मिले 
उसे भी नहीं बख्शता हूँ 
कुछ भी खा लेता हूँ 
विष्ठा भी नहीं छोड़ता हूँ 
कुछ भी खाता हूँ 
कैसे भी खाता हूँ 
चालाकी से 
चोरी से
डरकर 
या कभी साहस भी दिखाकर 
कोंई जुगत नहीं छोड़ता हूँ 
क्योंकि मैं कौआ हूँ
और कांव-कांव करने से भी 
कभी बाज नहीं आता हूँ 
एक से अधिक हो तो 
कांव-कांव की समा बंधती है 
दुनियाँ जाए भाड़ में 
मैं तो रहता अपनी ताक़ में 
और मौक़ा मिलते ही 
कांव-कांव करने लगता हूँ 

- नीरज कुमार झा 






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