पृष्ठ

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

बंदी जीवन की विरासत

हम संस्कार के नाम पर 
बच्चों को देते हैं ऐसी शिक्षा और माहौल, 
जिससे मजबूत होती हैं 
दीवारें उस कारा की 
जिसके अन्दर हम कैद हैं.
बच्चों से हम नहीं कहते 
कि हम आदर्श नहीं हैं; 
आदर्श कोई और भी नहीं है. 
हम नहीं कहते उन्हें 
कि मत पड़ो इन झमेलों में. 
उनकी ही जिम्मेदारी है
कि वे  चुने अपना रास्ता, 
और तय करें 
क्या है अच्छा या बुरा.
हम नहीं कहते 
कि हम नहीं हैं पूज्य. 
मत हो नतमस्तक हमारे सामने, 
और न ही प्रयास करो आज्ञा पालन की. 
वे ले निर्णय अपने, 
और निर्धारित करें अपने कृत्य-अकृत्य.
मत करें अनदेखी हमारी कमियों की. 
हिकारत से देखें हमें भी, 
और लौटाए जैसा का तैसा 
हमारे अस्वीकार्य किए का. 
ईज्जत करें बिना झुके
सिर्फ़ नेकनीयती की. 
हमें होना चाहिए साहस कहने के लिए
कि नहीं है हम अनुकरणीय
या कोई और भी. 
करना है उन्हें अनुसरण सिर्फ अपने विवेक का, 
और रखना है स्वविवेक को भी संदेह के घेरे में. 
हम नहीं सिखाते उन्हें  
कि वे करें प्रतिकार हमारा. 
हमसे करें प्रश्न, 
और रहे कोशिश में हमेशा 
हमें नकारने की.
हममें होनी चाहिए ईमानदारी कहने की 
कि प्रभुता और दासत्व की दुनियाँ में रहकर 
प्रवृत्ति बन चुकी है हमारी 
सल्तनत अपनी खड़ी करने की 
घर में भी. 
बच्चों से हम कहें  कि सब हैं  बराबर, 
और गैरबराबरी की हमारी हर चेष्टा पर 
वे करें प्रहार
बिलकुल बेहरमी और नफ़रत से.
बड़प्पन के थोपने की हर हमारी कोशिश को 
वे  उधेड़  दें बिलकुल बेपरवाही से. 
जब तक हम नहीं छोड़ेंगे 
हक़ अपनी छोटी मिल्कियत की,
बच्चों को नहीं बनायेंगे प्रतिगामी 
हम अपनी सामंती के,
तब तक हम नहीं तोड़ पायेंगे 
दीवारें उस कारा की 
जिसमें हम  कैद हैं, 
और हम बाध्य होंगे 
छोड़ने को विरासत 
उसी बंदी जीवन की 
जो चली आ रही है 
सनातन से. 

- नीरज कुमार झा 

मैं कवि नहीं कौआ हूँ

मैं कवि नहीं कौआ हूँ
जब भी मौका मिले 
कांव-कांव करने लगता हूँ  
वैसे मारा-मारा फिरता हूँ 
कुछ भी खा लेता हूँ 
जूठा-कूठा
सामिष-निरामिष 
मुर्दा-ज़िंदा
सड़ी-गली लाशें 
गिद्धों-कुत्तों से लड़कर खाता हूँ 
अंडे, छोटे पंछी और चूहे
भी डकार जाता हूँ 
जिन इंसानों के मारे भगता हूँ 
मरा या मरणासन्न भी मिले 
उसे भी नहीं बख्शता हूँ 
कुछ भी खा लेता हूँ 
विष्ठा भी नहीं छोड़ता हूँ 
कुछ भी खाता हूँ 
कैसे भी खाता हूँ 
चालाकी से 
चोरी से
डरकर 
या कभी साहस भी दिखाकर 
कोंई जुगत नहीं छोड़ता हूँ 
क्योंकि मैं कौआ हूँ
और कांव-कांव करने से भी 
कभी बाज नहीं आता हूँ 
एक से अधिक हो तो 
कांव-कांव की समा बंधती है 
दुनियाँ जाए भाड़ में 
मैं तो रहता अपनी ताक़ में 
और मौक़ा मिलते ही 
कांव-कांव करने लगता हूँ 

- नीरज कुमार झा 






शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

बिहार भ्रमण


बिहार में अंतराल पर भ्रमण करते समय सड़क, विद्युत आपूर्ति, कानून-व्यवस्था में सुधार स्पष्ट दिखता है. सरकारी स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाएँ वापस कार्यशीलता की ओर लौट रही  हैं. शहरों और गाँवों में सफाई भी बेहतर है  और पहले की तुलना में नवीन सम्पन्नता के दर्श भी  जहाँ-तहाँ होते हैं. फिर भी मामला इस बार  कुछ-कुछ ठहरा सा लगा. बिहार की गति थमनी नहीं चाहिए, बिहार ने बहुत कुछ झेला है और अंधकूप से निकल कर अभी गहरी साँसें भरने  में ही लगा है.

बिहार क्या कर सकता है? पहले बिहार को उन गलतियों पर विचार करना होगा जिनके कारण वह गर्त में गया. बिहार अपने विगत पर गंभीरता से मनन करे और उसे शिद्दत से समझे और पूरी सतर्कता से उस समझ को  स्मरण रखे. यदि वे वैसा नहीं करते हैं तो भविष्य में उन्हीं गलतियों को दुहारएंगे और पुनः उसी वंचना, उत्पीड़न  और अपमान के भुक्तभोगी बनेंगे.

चुनौती सिर्फ एक सामान्य जीवन शैली को हासिल करना नहीं है जहाँ लोगों को भोजन, वस्त्र, छत, चिकित्सा, शिक्षा और  सुरक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं साधारण रूप से प्राप्त हों. कहने का मतलब है कि लोगों को अमानवीय जीवन शैली से निजात दिलाने तक ही बिहार का उद्देश्य सीमित नहीं हो सकता है. बिहार की भूमि विश्व की महान सभ्यताओं में से एक की उद्गम भूमि रही है. प्राचीन यूरोप के इतिहास में तीन स्थानों का बहुत ही महत्व है. ये हैं, यूनान, रोम और जेरुसलम. अंतिम हालांकि  यूरोप से बाहर है. प्राचीन भारत के लिए  बिहार का  क्षेत्र यूनान , रोम और जेरूसलम तीनों ही था. इस भूमि से उत्सर्जित और विकसित हुए अद्वितीय ज्ञान-विज्ञान, साम्राज्य निर्माण की प्रक्रिया और विश्व के सर्वाधिक मानवीय आस्था के पंथ.

आज जिसे भारतीय  सभ्यता कहते हैं, को अवसर मिला है कि यह विश्व समाज में अपने उस मान को स्थापित करे जिसका वह अधिकारी है. यह अवसर तेजी से फिसल भी रहा है. अधिकतर लोग इस उपस्थित अवसर और इसकी  समाप्त होती सीमित कालावधि से अनजान हैं. कम ही लोग हैं जो इसे समझते हैं और  वे अवश्य ही व्यथित होंगे. सहस्त्राब्दियों में ऐसे अवसर गिने-चुने ही आते हैं. दिनों और पहरों में इतिहास बदलते हैं. तराइन, तालीकोटा,  पानीपत, प्लासी, बक्सर आदि स्थानों पर पहरों में घटित घटनाओं ने  करोड़ो लोगो के जीवन को शताब्दियों के लिए बदल दिया. इस विडम्बना की तुलना नहीं हो सकती है कि जिन लोगों का इतिहास इतना त्रासद हो, वे लोग   उस इतिहास को फसानों से भी कम तवज्जो देते हैं.  बिहार का दायित्व है कि वह अपने उस प्राचीन मेधा और शौर्य को जागृत करे और इस महान सभ्यता को इसके सहस्त्राब्दियों के पराभव से मुक्त कराए.  शौर्य का मतलब आज के युग में तलवारबाजी नहीं है. आज शौर्य का अभिप्राय है नई सोच और उसके प्रयोग का साहस.  
- नीरज कुमार झा