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रविवार, 19 फ़रवरी 2012

कठपुतले


भले ही दिखूं मैं
कठपुतले सा।  
यह सीमितता
नहीं है मेरी परतंत्रता।   
सीमाहीनता होगी समस्या
असीम की।   
मैं तो हूँ उन्मुक्त सतत
लांघने नई सीमाओं को।  
सीमाओं का होना ही
अर्थ देता  है अनधीनता को। 
कठपुतले को भी
ध्यान से तो देखो !
मखौल उड़ाता
मुझे दिखता वह 
देखने वालों का और
उसे नचाती
बेजार उँगलियों का। 

- नीरज कुमार झा 

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