नई दिल्ली स्थित भारत के लब्धप्रतिष्ठ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आयोजित या प्रायोजित एक कार्यक्रम के द्वारा राष्ट्रद्रोह की भावना को फ़ैलाने की कोशिश की व्यापक निंदा हुई है, जो नितांत स्वाभाविक है। कुछ दिनों के बाद इस इस घटना का भी पटाक्षेप हो जाएगा लेकिन जो बात सामान्यतः अनदेखी की जा रही है वह इस घटना की पृष्ठभूमि और प्रकृति है, जिनके गहन विश्लेषण की आवश्यकता है।
उक्त घटना वास्तव में देशव्यापी घटनाक्रम की एक कड़ी है जिसका उद्देश्य देश में अस्थिरता उत्पन्न करना है और देश की छवि को हानि पहुँचाना है। इस तरह के विवादों को जानबूझ कर निर्मित किया जाता है जिनसे लोगों की भावनाएँ भड़के और आरोप तथा प्रत्यारोप का लम्बा दौर चले। इनसे निश्चित रूप से समाज में वैमनस्य का वातावरण निर्मित होता है और कलह फैलता है। जवाहरलाल नेहरू नेहरू विश्वविद्यालय की घटना भी इसी कुत्सित प्रयास का हिस्सा है। साथ ही देश के कुछ वामपंथी समूह अपने नष्ट हो चुके मायाजाल को फिर से बहाल करने की कोशिश में हैं। वे समाज के सापेक्षिक कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्गों में अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। हालाँकि इस तरह के गठबन्धन का प्रयास एक दिवास्वप्न ही है। इसका कारण है कि पंथ, जाति तथा वर्ग आधारित विचारधाराओं में मौलिक विरोधाभास हैं।
इस घटना के पीछे की रणनीति क्या है? वैश्विक इतिहास को देखने से यह साफ़ हो जाता है कि मानवता के शत्रुओं ने सदैव फसाद और भ्रम के द्वारा ही स्वयं को स्थापित किया है। वामपंथी इस मामले में माहिर हैं। इस देश ने वामपंथ को विनाश का तांडव करने का ज़्यादा मौका तो नहीं दिया लेकिन देश इसके विघटनकारी प्रभाव से स्वयं की रक्षा भी नहीं कर पाया। यह वामपंथी विचारधारा का ही प्रभाव है कि आज़ादी के सात दशक के बाद भी भारत की लगभग एक चौथाई आबादी आज भी मानवोचित जीवन-यापन करने में अक्षम है। भारत तथा भारत के विचार से शत्रुता रखने वाले मात्र वामपंथी नहीं हैं। विदेशों के अनेक साधनसम्पन्न संगठन देश को जाति तथा क्षेत्रीयता के आधार पर भी तोड़ना चाहते हैं और कमज़ोर वर्गों के बीच द्रोह की भावना निर्मित करना चाहते हैं (इस तरह के अंतरराष्ट्रीय तंत्र को राजीव मल्होत्रा और अरविंदन नीलकंदन ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेकिंग इंडिया’ में बेनक़ाब किया है।) तीसरी, जिहादी ताकतें तो हैं ही।
वैश्विक स्तर पर भारत अनेक संगठनों और लोगों के आँखों की किरकिरी क्यों है? वास्तव में भारत एक अनन्य राष्ट्र है। यह राष्ट्र एक महान सभ्यता की राजनीतिक अभिव्यक्ति है। प्राचीन काल से ही इस सभ्यता का प्रभाव भारत वर्ष के भौगोलिक सीमाओं के परे अत्यन्त व्यापक रहा है। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक, निबंधकार तथा राजनयिक हु शिह (1891 – 1962) के अनुसार ‘भारत ने सीमा पार बिना एक भी सैनिक भेजे चीन को सांस्कृतिक रूप से विजित कर उस पर बीस सदियों तक राज किया है।’ प्राचीन काल में भारत का सांस्कृतिक प्रभाव इतना व्यापक था कि दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया और चीन के विशाल भूभाग को बृहत्तर भारत कहा गया है। यह महान सभ्यता लगभग अपनी सम्पूर्णता में आधुनिक युग में राजनीतिक रूप से राष्ट्र-राज्य में परिवर्तित हो गयी है। यह तथ्य उल्लेखनीय है क्योंकि यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का उदय ईसाई सभ्यता के विखण्डन के परिणामस्वरूप हुआ है जिसका आधार जातीय तथा भाषाई है जबकि भारतीय राष्ट्र-राज्य सभ्यतामूलक है।
भारतीय राष्ट्र-राज्य सनातन धर्म जनित सभ्यता का आधुनिक रूप है, जिसका मूल तत्त्व अद्यतन अक्षुण्ण है। यह मूल तत्त्व है सर्वहित की भावना जो मानवों, चराचर तथा लोक-परलोक को अविभाज्य देखता है। उदात्तता की पराकाष्ठा प्राप्त करने के बाद भी यह सभ्यता हर तरह के विचारों का सम्मान करती रही है। सभी मत-मतान्तरों के प्रति सम्मान रखते हुए यह परम्परा वर्चस्व की प्रवृत्ति से हीन है और मानव समाज को परस्पर कुटुंब मानती है। नैसर्गिकता के इस सभ्यता का मतारोपण के वादों के अनुयायियों और वर्चस्ववादियों का कोपभाजन होना स्वाभाविक है। सनातन सभ्यता सृष्टि की सभ्यता है, प्रकृति की सभ्यता है, मानवीयता की सभ्यता है।
वैश्विक स्तर पर वर्चस्व के कामी भारत के उदय से कष्ट में हैं और इस सभ्यता को नष्ट होते देखना चाहते हैं और उनका सबसे बड़ा हथियार रहा है भारतीयों को विभाजित कर आपस में लड़ाना, जो दुर्भाग्य से अक्सर कारगर रहता है। इस विषम परिस्थिति में भारत को अपनी सभ्यता की उज्जवल परम्परा को त्यागने की आवश्यकता नहीं है बल्कि मानवहित में उसको और सबल करने की जरूरत है। साथ ही हालाँकि इससे भी जरूरी है कि भारत अपनी रक्षा के लिए रणनीतिक सोच विकसित करे। भारतवासियों को एकजुट होकर देश को सशक्त, सम्पन्न और प्रभावशाली बनाना है। हमें कभी नहीं भूलना है कि हमारा दायित्व वैश्विक है और उस अनुरूप हमें क्षमता प्राप्त करनी है। ऐसा तो बिलकुल नहीं होना चाहिए कि कुछ दुर्जन कुचक्र चलाकर हमें बार-बार दिग्भ्रमित करते रहें। हमें इस तथ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए कि गुप्तवंश के शासन काल के बाद से इस देश के निवासी सम्मान और सम्पन्नता के जीवन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
समस्त देशवासियों को इस बात को समझना होगा कि स्वतंत्रता, स्वराज और सुराज का एक ही सूत्र है - वह संविधानवाद है (संविधानवाद को मैं धर्मसत्ता के रूप में परिभाषित करता हूँ)। संविधानवाद से ही स्वतंत्रता का रक्षण और संवर्द्धन सम्भव है। उपद्रव और उत्तेजना फ़ैलाने से संविधान सबल नहीं होता है बल्कि निर्बल होता है। यदि भारत एक कार्यशील जनतंत्र है तो उसकी आधारभूमि हमारी स्वतंत्रता संग्राम की विरासतें हैं। इस संग्राम में भारतीयों के तरफ़ से सभ्य संवाद को सदैव वरीयता दी गयी थी। हमें आज परस्पर विमर्श और समझ की प्रक्रियाओं को सघन बनाने की जरूरत है। हम एक बौद्धिक समाज बनकर ही अन्तरराष्ट्रीय चक्रव्यूह को तोड़ सकते हैं। अभी तमाम फसादों का एक दुष्परिणाम तो एकदम साफ़ है। आज देश में आर्थिक सुधारों की जरूरत सबसे ज़्यादा है लेकिन इन उपद्रवों की वजह से यह प्रक्रिया अपेक्षित गति को प्राप्त नहीं कर पा रही है। भारत की जय हो, यह मानवता की जय की अपरिहार्य शर्त है।
नीरज कुमार झा
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