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रविवार, 7 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ५)

उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण का उद्देश्य भारत देश में ही भारती का दोयम दर्जे की भाषा के रूप में पतन को रेखांकित करना है. यह अत्यंत त्रासद विडम्बना है कि किसी देश की राष्ट्रभाषा स्वदेश में ही द्वितीयक श्रेणी की भाषा सिद्ध हो रही है. हालांकि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीयों की आंग्ल भाषा में प्रवीणता भारत की विशेषता के रूप में देखी जाती है, खासकर चीन की तुलना में. चीन से जब भी भारत की तुलना आर्थिक विकास के क्षेत्र में की जाती है तो भारत में अँगरेज़ी के प्रचलन को भारत के पक्ष में देखी जाती है. चीन भी इस कमी को दूर करने में युद्धस्तर पर लगा हुआ है. एक आकलन के अनुसार चीन में अभी छ: करोड़ लोग अँगरेज़ी का अध्ययन कर रहे हैं. ऐसा समय दूर नहीं कि जब दुनियाँ में सबसे ज़्यादा आंग्लभाषी चीन में होंगे. अँगरेज़ी सीखना आज समय की माँग है. इसे सीखना प्राय: विश्व बाज़ार में प्रतियोगी बने रहने की आवश्यकता है. अँगरेज़ी सीखना ग़लत भी नहीं है और अँगरेज़ी का विरोध तो देशवासियों के लिये अत्यंत अहितकर है, खासकर गरीब तबको के लिये. यदि अँगरेज़ी हटायी जाती है तो यह सरकारी विद्यालयों से ही हटेगी जिसकी सबसे ज़्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी. गरीबी दूर करने का यदि एक माध्यम शिक्षा है तो शिक्षा अँगरेज़ी माध्यम में इस उद्देश्य को प्राप्त करने में और भी प्रभावी होगी. यहाँ पैरोकारी जैसा कि स्पष्ट है कि अँगरेज़ी का विरोध नहीं है बल्कि भारती की प्रतिष्ठा एवं उपादेयता में विस्तार कर इसे अधिक ग्राह्य बनाने तथा एक दूरगामी लक्ष्य के रूप में इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उपायों पर विचार करना है है. लेकिन इससे पूर्व ऐसा करना क्यों आवश्यक है उसपर विचार करना समीचीन है क्योंकि जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है कि यह मात्र भावना का प्रश्न नहीं है.
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

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