चिंता तथा चिन्तन का विषय
प्राय: प्रत्येक हिन्दीभाषी हिन्दी को एक विश्वभाषा के रूप में देखना चाहता है लेकिन स्थिति यह है कि भारत के हिन्दी क्षेत्र में ही यह भाषा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये संघर्षरत है. इसकी उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लग चुका है. यही कारण है कि विपन्न वर्ग के जन भी अत्यंत त्याग कर अपने बच्चों को अँगरेज़ी माध्यम में शिक्षा दिलवाते हैं. विकल्पहीनता की स्थिति में कोई भी अपने पालितों को हिन्दी माध्यम के विद्यालय में भेजता है. आज की अर्थव्यवस्था में अँगरेज़ी का बोलबाला तो निर्विवाद है. कृषि, लघु उद्यम, श्रम को छोड़ दें तो एक छोटी सी नौकरी पाने के लिये भी अँगरेज़ी का ज्ञान अनिवार्य योग्यता का हिस्सा हो चुका है. प्रबंध की भाषा तो अँगरेज़ी है ही. अगर लोगों की मनोस्थिति को मापदंड माने तो हिन्दी एक भाषा के रूप में सम्मान तथा उपादेय्या निश्चित तौर पर समाप्त हो चुकी है. इसका अस्तित्व महज मजबूरी या आनुष्ठानिक है. जहाँ भारत का मध्यवर्ग अँगरेज़ी को अपनाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है वहीं भारतीय अभिजन में तो यह घरेलू बोलचाल की भी भाषा नहीं रह गयी है. सिर्फ़ राजनी्विक अभिजन का एक छोटा हिस्सा अपवाद हो सकता है. यहाँ तक कि हिन्दी फिल्मों के अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ, जो हिन्दी में लच्छेदार संवाद बोलते नज़र आते हैं, अपनी निजी तथा सामाजिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करना अपना तौहीन मानते हैं. यह विचार की भाषा तो रह ही नहीं गयी है. अच्छे शोध, अच्छे विचार तथा शायद अच्छे साहित्य के लिये भी हिन्दी भाषी अँगरेज़ी भाषा पर निर्भर करते हैं. साहित्य में तो भले ही इस भाषा की महत्ता को कमतर आँकना उचित नहीं हो लेकिन मानविकी को छोड़ दें तो समाज, प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों में इस भाषा का प्रयोग श्रेष्ठ संस्थानों में अपवाद स्वरूप ही होता है. तकनीक या प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण, जिसका उद्देश्य मात्र विज्ञान को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करना है में भी भारती का प्रयोग नहीं के बराबर है. जिन लोगों ने हिन्दी को अपने शोध या सृजन का माध्यम बनाया हुआ है वे सामान्यतया अँगरेज़ी के प्रयोग में असमर्थ हैं. हिन्दी भाषी राज्यों के प्रशासन में अँगरेज़ी के प्रयोग को नीति के अंतर्गत हतोत्साहित किया जा्वा है लेकिन उसके बावजूद निहायत ही देसी किस्म के, आंचलिक शिक्षण संस्थानों में पढ़े बड़े, मझोले और यहाँ तक की छोटे मेजतंत्रीगण (ब्यूरोक्रैट्स) भी मिली जुली तथा टूटी फूटी ही सही, अँगरेज़ी के उपयोग को अपने साहबीयत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. यहाँ तक कि संसद में भी हिन्दी क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी यदि बोलने की स्थिति में हैं तो अँगरेज़ी ही बोलते हैं. बक़ौल उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा अध्यक्ष श्री भैरों सिंह शेखावत, संसद में सांसद हिन्दी बोलने से कतराते हैं या यदि बोलते हैं तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाता है (टाइम्स अव इंडिया, पटना, ३१ मई २००५). उच्च्वर न्यायालयों में तो हिन्दी को अभी तक अपनाया भी नहीं गया है.
प्राय: प्रत्येक हिन्दीभाषी हिन्दी को एक विश्वभाषा के रूप में देखना चाहता है लेकिन स्थिति यह है कि भारत के हिन्दी क्षेत्र में ही यह भाषा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये संघर्षरत है. इसकी उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लग चुका है. यही कारण है कि विपन्न वर्ग के जन भी अत्यंत त्याग कर अपने बच्चों को अँगरेज़ी माध्यम में शिक्षा दिलवाते हैं. विकल्पहीनता की स्थिति में कोई भी अपने पालितों को हिन्दी माध्यम के विद्यालय में भेजता है. आज की अर्थव्यवस्था में अँगरेज़ी का बोलबाला तो निर्विवाद है. कृषि, लघु उद्यम, श्रम को छोड़ दें तो एक छोटी सी नौकरी पाने के लिये भी अँगरेज़ी का ज्ञान अनिवार्य योग्यता का हिस्सा हो चुका है. प्रबंध की भाषा तो अँगरेज़ी है ही. अगर लोगों की मनोस्थिति को मापदंड माने तो हिन्दी एक भाषा के रूप में सम्मान तथा उपादेय्या निश्चित तौर पर समाप्त हो चुकी है. इसका अस्तित्व महज मजबूरी या आनुष्ठानिक है. जहाँ भारत का मध्यवर्ग अँगरेज़ी को अपनाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है वहीं भारतीय अभिजन में तो यह घरेलू बोलचाल की भी भाषा नहीं रह गयी है. सिर्फ़ राजनी्विक अभिजन का एक छोटा हिस्सा अपवाद हो सकता है. यहाँ तक कि हिन्दी फिल्मों के अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ, जो हिन्दी में लच्छेदार संवाद बोलते नज़र आते हैं, अपनी निजी तथा सामाजिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करना अपना तौहीन मानते हैं. यह विचार की भाषा तो रह ही नहीं गयी है. अच्छे शोध, अच्छे विचार तथा शायद अच्छे साहित्य के लिये भी हिन्दी भाषी अँगरेज़ी भाषा पर निर्भर करते हैं. साहित्य में तो भले ही इस भाषा की महत्ता को कमतर आँकना उचित नहीं हो लेकिन मानविकी को छोड़ दें तो समाज, प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों में इस भाषा का प्रयोग श्रेष्ठ संस्थानों में अपवाद स्वरूप ही होता है. तकनीक या प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण, जिसका उद्देश्य मात्र विज्ञान को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करना है में भी भारती का प्रयोग नहीं के बराबर है. जिन लोगों ने हिन्दी को अपने शोध या सृजन का माध्यम बनाया हुआ है वे सामान्यतया अँगरेज़ी के प्रयोग में असमर्थ हैं. हिन्दी भाषी राज्यों के प्रशासन में अँगरेज़ी के प्रयोग को नीति के अंतर्गत हतोत्साहित किया जा्वा है लेकिन उसके बावजूद निहायत ही देसी किस्म के, आंचलिक शिक्षण संस्थानों में पढ़े बड़े, मझोले और यहाँ तक की छोटे मेजतंत्रीगण (ब्यूरोक्रैट्स) भी मिली जुली तथा टूटी फूटी ही सही, अँगरेज़ी के उपयोग को अपने साहबीयत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. यहाँ तक कि संसद में भी हिन्दी क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी यदि बोलने की स्थिति में हैं तो अँगरेज़ी ही बोलते हैं. बक़ौल उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा अध्यक्ष श्री भैरों सिंह शेखावत, संसद में सांसद हिन्दी बोलने से कतराते हैं या यदि बोलते हैं तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाता है (टाइम्स अव इंडिया, पटना, ३१ मई २००५). उच्च्वर न्यायालयों में तो हिन्दी को अभी तक अपनाया भी नहीं गया है.
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)
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