जगमगाहट ऐसी
कि नज़रें ठहरती नहीं
अंधेरा ऐसा कि
खो जाता अहसास
आँखों के होने का ही
कहीं कैद रोशनी अंधेरे में
कहीं झीनी रोशनी के पीछे ठोस अंधेरा
याद आती है ऐसे में
पसरी दूर-दूर तक
शांत शीतल चाँदनी
नफ़रत से आँखें फेर लो
बेशर्मी की बेहिसाब अमीरी ऐसी
नज़रें ना मिला सको
बेज़ार करती गरीबी ऐसी
यह तरक्की कैसी कि
नैतिकता का निकल गया फलूदा
और मरणासन्न है मानवीयता
अस्तित्व का अर्थ समझना संभव नहीं, यह तय है। अस्तित्व का कोई सत्य नहीं, यह विचित्र सत्य है। अर्थहीनता के इस अनादि अनंत विस्तार में विचरता हमारा विवेक भयाकुल है। भयाकुल मन रचता है कल्पना का सच। लेकिन सच की कल्पना का संबल जो है जो हमारी जद में है कभी-कभी उसे ही उजाड़ देता है। यह नहीं होना चाहिए। - नीरज कुमार झा