जन अथवा समाज मंगल गंभीर और जनहितैषी दार्शनिकों की उपस्थिति की मांग करता है।
हालाँकि दर्शन के साथ गंभीर और जनहितैषी विशेषण अनावश्यक हैं, लेकिन दर्शन के नाम से जो चलन में रहता है, उसको लेकर सचेत करने के लिए यहाँ इन विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
गंभीर इसलिए कि एक तथाकथित दार्शनिक हवाई किले बनाने वाला हो सकता है; बिना इतिहास बोध, समाज और मानवीय प्रकृति की समझ के वह निरर्थक स्वप्नों का द्रष्टा और प्रसारक हो सकता है। ऐसे दार्शनिक बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और समाज अपनी तमाम विसंगतियों के साथ यथास्थिति में रहता है। किसी भी साधन-संपन्न संप्रभु देश में विपन्नता की विद्यमानता इस तरह की कुबुद्धि के आधिक्य का ही प्रमाण है।
दूसरा कि अनेक आधिकारिक विद्वान द्वारा बाह्य संस्कृति से उत्पन्न विचारधाराओं को स्वयं के परिवेश में अनुकूलन की क्षमता की बिना परख किए उसके आरोपण की पैरोकारी करते हैं। यहाँ तक कि जहाँ से उनका आयात किया गया है, वहाँ भी उसे स्वीकार नहीं किया गया हो। ऐसे विद्वानों को भी दार्शनिक की श्रेणी में रखा जाता है। विदेशीकृत विद्वान अपनी गठरी में संग्रहीत सामग्रियों को लेकर उलझन का प्रदर्शन कर भी इस श्रेणी में स्थान पा लेते हैं।
जनहितैषी इसलिए कि दर्शन संज्ञा का दुरुपयोग होता है। कोई व्यक्ति अस्तित्व के अज्ञेय पक्षों को लेकर भय और मानवीय मानसिकता में अंतर्निहित दुर्बलताओं को आधार बनाकार शब्दाडंबर अथवा भाषाई जाल के माध्यम से लोगों को भ्रमित कर सकता है। मानव इतिहास में मानव निर्मित त्रासदियों की भरमार ऐसे ही विकृत बुद्धिप्रयोगों का दुष्परिणाम रहा है।
दर्शन और विज्ञान में अंतर है। दर्शन की प्रकृति समग्रता मूलक अथवा व्यापक दृष्टि है। इस दृष्टि की व्यापकता अज्ञेय और ज्ञेय का भी मेल कराती है। इसका बिन्दु संकेन्द्रण भी व्यापक दृष्टि का ही सघन संकुचन है। यह जीवन को अर्थयुक्त बनाती है। विज्ञान प्रधानतया एकलता से व्यापकता की ओर जाता है और इसकी मूल प्रकृति संकेन्द्रण की है।
दर्शन मानव जीवन का विज्ञान की तुलना में अधिक सशक्त मार्गदर्शक है। दर्शन विज्ञान को अधिगृहीत रखता है। विज्ञान की स्थिति दर्शन सेवी की है।
यह दर्शन ही है जो मानव को बर्बर से सभ्य बनाता है, और दर्शन के अभाव में भौतिक तथा वैज्ञानिक साधनों से युक्त होते हुए भी समुदाय प्रवृत्ति और आचरण से असभ्य ही बने रहते हैं। ऐसा नहीं लगता है कि मानव बिना दर्शन के हो। वास्तव में बर्बरता प्रवृत्ति होती है, जो दर्शन की जगह काम करती है। यही प्रवृत्ति दर्शन विकृति का स्रोत और दर्शन की चुनौती है।
भारत ने दर्शन में महती योगदान दिया है। वसुधैव कुटुंबकम, सर्वमंगल, जीवन की विविध शैलियों का अभिनंदन, शांति और सुबुद्धि हेतु सतत प्रार्थना इस दर्शन की अनन्य सीखें हैं। आज भारत अपनी मौलिक मेधा को जागृत कर पुनः इस नए युग में मानवहित के पोषण में भूमिका निभाए, यह अभीष्ट है।
नीरज कुमार झा
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