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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

कृत्रिम


कमरे के कोने में रखा है प्लास्टिक का एक गमला 
नक़ली मिट्टी में लगा है नक़ली पौधा 
फूलों पर फरफरा रही हैं कुछेक मशीनी तितलियाँ 
गमला, मिट्टी, पौधा, फूल और तितलियाँ 
उनकी असलियत घर के मालिक बताते हैं 
वैसे सभी बिलकुल असल दिखते हैं 
मैं शक की निगाहों से 
देखता हूँ पास खेलते बच्चे को 
फ़िर झटके सा अपना ही ख्याल आता है
क्या मैं भी चार्ज कर छोड़ा गया कोई मशीन हूँ 
जिसमें भर दिया गया हो अहसास अतीत के घटने का 
और बोध भविष्य के होने का
मुझे संदेह हो रहा है अपने होने पर
कहीं कृत्रिम तो नहीं है मेरी चेतना
- नीरज कुमार झा 

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

अक़्ल पर पत्थर

हम मनुष्य हैं
उनकी ही तरह,
लेकिन ऐसा अहसास
सिर्फ़ आईने के सामने होता है. 
वो भी कभी-कभी.
दो पैरों पर खड़े होते,
या शरीर पर घने रोयें ही होते,
तो वैसा भी नहीं लगता.
जो लगता है,
वह है कि हम बैल हैं,
कोल्हू में जुते 
गोल-गोल घूमते हैं.
कभी लगता है कि 
हम कुत्ते हैं,
भौं-भौं करते हैं,
पूँछ हिलाते हैं,
कहने पर काट भी खाते हैं.
और भी बहुत कुछ होना लगता है,
जैसे कि सूअर, कौआ या फ़िर गधा.
काश वही होते जो लगते हैं!
कुत्ते होते तो कुत्तेपन के प्रति बेईमान तो होते.
बैल ही होते तो बेचारगी इतनी बोझिल तो होती.
इसी ऊहापोह में मिले मनीषी कुछ एक दिन.
हमने बताई अपनी व्यथा.
आदमी तो हैं,
लेकिन आदमी होना महसूस नहीं होता.
उन्होंने कहा धर्म-कर्म ही मानवता.
कर्त्तव्य में छिपा अधिकार.
कर्म करो,
अपना धर्म निबाहो,
आदमियत क्या,
ईश्वर पा जाओगे.
मनीषी वचनों से मिटी नहीं हमारी शंका.
जुते तो रहते हैं,
भूंकते भी हैं,
काटते भी हैं.
सब कुछ तो करते हैं.
करें भी कैसे नहीं?
नहीं कह भी तो नहीं सकते.
यूँ तो पुचकारे भी जाते हैं,
कभी दुलारे भी जाते हैं.
वैसे डांटे जायेंगे,
लात खायेंगे,
डंडे खायेंगे.
बाद में उन्हीं में से एक
पास हमारे वह ही आया.
अलग ले जा उसने कहा,
शंकाएँ तुम्हारी जायज.
धर्म-कर्म, नीति-अनीति,
सब भुलावें हैं.
क्रांति करो, बदलो समाज,
अमानुषता से तभी मिलेगा छुटकारा.
बात मेरे समझ में आयी.
वह लात, जूते, दुत्कार ही नहीं,
हमें गोली भी खिलवाना चाहता है.
उनकी बातों से,
अपनी बीती से,
बात समझ में आने लगी है.
हम करते हैं वही
जो हमसे करवाया जाता है.
ग़लत यदि कुछ है तो
वही हमसे करवाते हैं.
ऊपर से तोहमत भी लगाते हैं.
फ़िर कहते हैं
तुम हो कर्तव्यच्युत, कर्महीन, अधर्मी,
हो इसलिये मानवता से वंचित.
उन्हीं में से कुछ, उन जैसे ही,
पढ़े-लिखे प्रशिक्षित विदेशों से भी,
करते हैं वही सब जो उनके जैसे करते हैं.
लेकिन ये भी देते हमें ही धिक्कार
क्रांति की क्षमता नहीं तुममें,
इसलिये हो कुचले, दमित-शोषित.
क्या कहें उन्हें?
क्रांति कर-कर दुनियाँ थकी.
मिला नहीं हम जैसों को कुछ भी, कहीं भी.
वे हमें बहलाते हैं.
अपराध उनका,
दोषी हमें बताते हैं.
हम भी बिना सोचे
दोषी खुद को पाते हैं.
खोये मानवता इसलिये बैठे हैं.
सिर्फ़ समझ का है फेर
उन्हें करना है अपना कर्तव्य,
जिसे वे करते नहीं.
हमें चाहिए अधिकार
जो वे हम से फुसलाये बैठे हैं.
अक़्ल पर पत्थर पड़ा हमारे,
इसलिये वे हमें ठगे जाते हैं.


- नीरज कुमार झा



शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

उत्तर से अतिक्रमण

    भारत-चीन सीमा पर असामान्य सी भले ही कोई स्थिति नहीं हो क्योंकि चीन की घुसपैठ को आम बात मानी जा रही है, लेकिन यह तय है कि चीन भारत-चीन सीमा रेखा मैकमहन लाइन को नहीं मानता है, अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताता है, अकसाई चीन पर कब्जा किये बैठा है, भारत की चारो तरफ से घेराबंदी कर रहा है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता की भारत की दावेदारी का विरोध करता है और भारत को औकात बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता है. ... यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि भारत की तात्कालिक रूप से चीन से कोई गंभीर खतरा है, बल्कि बड़ा प्रश्न यह है कि क्या भारत चीन की  बढ़ती ताक़त तथा उसकी वर्चस्ववादी नीतियों के प्रतिकार की क्षमता विकसित करने के लिए सजग है? क्या भारत चीन के द्वारा प्रस्तुत आर्थिक प्रतियोगिता का सामना करने के लिए तैयार है? यह सही है कि भारत चीन के बाद विश्व की सर्वाधिक बढ़ने वाली  अर्थव्यवस्था है लेकिन जब मुक़ाबला आमने-सामने का हो तो नंबर दो होना कोई मायने नहीं रखता है. ...
     सबल सुरक्षा व्यवस्था के लिये अर्थव्यवस्था की मजबूती आधारभूत है और मज़बूत अर्थव्यवस्था के लिये ज़रूरी है स्वच्छ, समर्पित, सुलझी, सक्रिय तथा लक्ष्योंमुखी शासन प्रणाली. चूंकि जनतंत्र जनस्वामित्व पर आधारित शासन प्रणाली है, इसलिए शिक्षा का मह्त्व निर्णायक है. शिक्षा की गुणवत्ता मानव संसाधन के दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि नेतृत्व तथा प्रशासन की निष्ठा तथा क्षमता, सभ्य नागरिकता और संस्कृति के परिष्कार के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है.
नीरज कुमार झा, "उत्तर से अतिक्रमण," बी पी एन टुडे, ग्वालियर,  १/२, १६ अक्टूबर २००९, पृ. ४३/४२-४४.

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

दीप आस्था के






अरण्य में कोई दीप जला जाता है
घटाटोप अंधकार में राहगीर का
विश्वास जब डगमगाता है
यह टिमटिमाती रोशनी
बन जाती है उसकी आस्था

अमावस की स्याह रात
जब दीप असंख्य जलते हैं
अंधकार के अति की उस रात में 
आस्था एक सभ्यता की रोशन होती है
राह दिखाती संशय में पड़े कदमों को

रूग्णता, शैथिल्य, दुःख, या बिछोह
होता जब जीवन में उछाह कम
काटता यह तिमिर नैराश्य का
लौटा लाता यह उत्साह-उमंग 
पुनर्नवा करता मानव मन को

देश और दुनिया में कहीं भी
जब हम प्रकाश को लड़ियों में पिरोते हैं
हमारी प्रतिबद्धता है प्राचीन 
सत्य में हमारा विश्वास है अडिग
उस रात ये जगमग लड़ियाँ कहती हैं 

एक संस्कृति देती है चुनौती
अन्याय, अनीति और अनाचार को 
विकार, विद्वेष व विषाद के अंधकार को 
असत का रहा हो कितना भी जोर 
अखंडित है यह हमारा प्रकाश पर्व 

- नीरज कुमार झा