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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

कृत्रिम


कमरे के कोने में रखा है प्लास्टिक का एक गमला 
नक़ली मिट्टी में लगा है नक़ली पौधा 
फूलों पर फरफरा रही हैं कुछेक मशीनी तितलियाँ 
गमला, मिट्टी, पौधा, फूल और तितलियाँ 
उनकी असलियत घर के मालिक बताते हैं 
वैसे सभी बिलकुल असल दिखते हैं 
मैं शक की निगाहों से 
देखता हूँ पास खेलते बच्चे को 
फ़िर झटके सा अपना ही ख्याल आता है
क्या मैं भी चार्ज कर छोड़ा गया कोई मशीन हूँ 
जिसमें भर दिया गया हो अहसास अतीत के घटने का 
और बोध भविष्य के होने का
मुझे संदेह हो रहा है अपने होने पर
कहीं कृत्रिम तो नहीं है मेरी चेतना
- नीरज कुमार झा 

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