पृष्ठ

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

अक़्ल पर पत्थर

हम मनुष्य हैं
उनकी ही तरह,
लेकिन ऐसा अहसास
सिर्फ़ आईने के सामने होता है. 
वो भी कभी-कभी.
दो पैरों पर खड़े होते,
या शरीर पर घने रोयें ही होते,
तो वैसा भी नहीं लगता.
जो लगता है,
वह है कि हम बैल हैं,
कोल्हू में जुते 
गोल-गोल घूमते हैं.
कभी लगता है कि 
हम कुत्ते हैं,
भौं-भौं करते हैं,
पूँछ हिलाते हैं,
कहने पर काट भी खाते हैं.
और भी बहुत कुछ होना लगता है,
जैसे कि सूअर, कौआ या फ़िर गधा.
काश वही होते जो लगते हैं!
कुत्ते होते तो कुत्तेपन के प्रति बेईमान तो होते.
बैल ही होते तो बेचारगी इतनी बोझिल तो होती.
इसी ऊहापोह में मिले मनीषी कुछ एक दिन.
हमने बताई अपनी व्यथा.
आदमी तो हैं,
लेकिन आदमी होना महसूस नहीं होता.
उन्होंने कहा धर्म-कर्म ही मानवता.
कर्त्तव्य में छिपा अधिकार.
कर्म करो,
अपना धर्म निबाहो,
आदमियत क्या,
ईश्वर पा जाओगे.
मनीषी वचनों से मिटी नहीं हमारी शंका.
जुते तो रहते हैं,
भूंकते भी हैं,
काटते भी हैं.
सब कुछ तो करते हैं.
करें भी कैसे नहीं?
नहीं कह भी तो नहीं सकते.
यूँ तो पुचकारे भी जाते हैं,
कभी दुलारे भी जाते हैं.
वैसे डांटे जायेंगे,
लात खायेंगे,
डंडे खायेंगे.
बाद में उन्हीं में से एक
पास हमारे वह ही आया.
अलग ले जा उसने कहा,
शंकाएँ तुम्हारी जायज.
धर्म-कर्म, नीति-अनीति,
सब भुलावें हैं.
क्रांति करो, बदलो समाज,
अमानुषता से तभी मिलेगा छुटकारा.
बात मेरे समझ में आयी.
वह लात, जूते, दुत्कार ही नहीं,
हमें गोली भी खिलवाना चाहता है.
उनकी बातों से,
अपनी बीती से,
बात समझ में आने लगी है.
हम करते हैं वही
जो हमसे करवाया जाता है.
ग़लत यदि कुछ है तो
वही हमसे करवाते हैं.
ऊपर से तोहमत भी लगाते हैं.
फ़िर कहते हैं
तुम हो कर्तव्यच्युत, कर्महीन, अधर्मी,
हो इसलिये मानवता से वंचित.
उन्हीं में से कुछ, उन जैसे ही,
पढ़े-लिखे प्रशिक्षित विदेशों से भी,
करते हैं वही सब जो उनके जैसे करते हैं.
लेकिन ये भी देते हमें ही धिक्कार
क्रांति की क्षमता नहीं तुममें,
इसलिये हो कुचले, दमित-शोषित.
क्या कहें उन्हें?
क्रांति कर-कर दुनियाँ थकी.
मिला नहीं हम जैसों को कुछ भी, कहीं भी.
वे हमें बहलाते हैं.
अपराध उनका,
दोषी हमें बताते हैं.
हम भी बिना सोचे
दोषी खुद को पाते हैं.
खोये मानवता इसलिये बैठे हैं.
सिर्फ़ समझ का है फेर
उन्हें करना है अपना कर्तव्य,
जिसे वे करते नहीं.
हमें चाहिए अधिकार
जो वे हम से फुसलाये बैठे हैं.
अक़्ल पर पत्थर पड़ा हमारे,
इसलिये वे हमें ठगे जाते हैं.


- नीरज कुमार झा



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें