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मंगलवार, 10 नवंबर 2009

भीड़

जब आप बनते हैं भीड़
खो देते हैं आप अपना विवेक 
विलीन हो जाता है आपका व्यक्तित्व 
जन्मते हैं आप एक महाकाय 
जिसका सर नहीं होता
आँख-कान कुछ नहीं होता 
होती हैं सिर्फ़ भुजाएँ
जो मचा सकती हैं 
केवल तबाही

जब आप होते हैं भीड़
आप नहीं रह जाते एक जवाबदेह आदमी
आप को हर लेता है वह कबंध
सर्वभक्षण ही है जिसके होने का अंत
भीड़ की मानसिकता खींचती है
आपके अन्दर बैठा बर्बर कुलांचे भरता है
सभ्यता के उत्तरदायित्व का वज़न 
वह उतार फेंकना चाहता है

जब आप बने होते हैं भीड़
उस ज़गह पर उस समय के लिये
आप धकेल देते हैं सभ्यता को वापस 
उस जगह पर जहाँ से  बढ़ी है 
यह सहस्राब्दियों से रेंग-रेंग कर 
आज तक

जब आप बनते हैं भीड़
आप नहीं रह जाते हैं एक नागरिक 
जिसके हैं अधिकार और दायित्व 
आप खोते हैं अपनी आज़ादी
आज़ादी जो मिली है 
मात्र पीढ़ी-दो-पीढ़ी पीछे 
और आज भी है आधी-अधूरी अनिश्चित 
आज़ादी मिलती है मुश्किल से 
खोने में नहीं लगता पल भी
आज़ादी का घर कब बन जाता कारा
उसका अहसास भी नहीं होता

वे आज भी सक्रिय हैं
वह मानसिकता आज भी जीवित है
जिससे पीड़ित रही है मानवता 
जाने कब से 
वे बैठे हैं बिलकुल ताक में 
बनते हैं आप भीड़
नहीं अपने-आप या अनायास 
वे गढ़ते हैं आपके मन को धीरे-धीरे
बदलते हैं आपके मस्तिष्क के ऊतकों को बारूद में 
जिसे वे फोड़ सकें चाहे जैसे जब भी
वे नफ़रत करते हैं आपसे 
भले ही देते दुहाई आपके नाम की

जब आप बनते हैं भीड़
बन जाते हैं औजार 
उन गिरोहबंद लोगों के 
जो आपको कुचलने में लगे हैं 
हरण करते वे आपकी मर्यादा का
वे चुराते आपके होने को
वे ले लेते हैं वह सब कुछ आप से 
जो मिली है विरासत में आपको
मानवीयता के उस अनवरत संघर्ष से 
जो चल रही है आदम युग से 
और आज भी जारी है 

- नीरज कुमार झा

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