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शनिवार, 28 अगस्त 2010

आखेटक

मेरी ज़ेहन की तरकश में 
तराशे जुमलों के तीर भरे हैं 
ज़बाँ की  कमान से 
बेधने लक्ष्य का कोई मौक़ा
करता नहीं  जाया 
होता हूँ खुश पा निशाने पर 
झूठ, छल,  छद्म के आवरण से हीन सहजता
परहेज़ है मुझे  बख्तरबंद  लड़ाकों से
बनावटी चरित्र के लौह कवचों पर बेकाम जाते हैं तीर
ऊपर से ज़ोखिम जवाबी हमले का  
निश्शंक साधता तीर
साधुता के खुले तन पर 
धंसते तीर के ध्वनि की तीक्ष्णता 
तीर के धंसने की गहराई
पतली रक्तधारा की सघनता 
करती हैं मुझे तुष्ट
बींधे लक्ष्य की असह्य वेदना
निर्दोष मन की मर्मान्तक छटपटाहट  
करती नहीं मुझे विकल 
आखेटक हूँ पक्का 
पालन-प्रशिक्षण ही ऐसा मेरा 
होने के लिए  ऐसा ही 
किया गया है तैयार मुझे 

-  नीरज कुमार झा 


3 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी पंक्तिया है .... .
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/

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  2. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ........माफी चाहता हूँ..

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