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सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

सेकुलरवाद का संकट

नीरज कुमार झा 

धर्म धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना और रिलिजन लैटिन रेलिगेअर से उत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ है चीजों को इकट्‌ठा करना या एक ही जमीन पर से बार-बार गुजरना। सानान्य धारणा के विपरीत धर्म तथा रिलिजन का अभिप्राय एक ही है -  जमीन से जुड़ी सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना लेकिन भारत में जहॉ बहुदेववाद, अनेक उपासना पद्धति तथा भिन्न आध्यात्मिक दर्शन की परम्परा रही है वहीं पश्चिम में एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक सर्वोच्च धर्माधिकारी रिलिजन को ठोस स्वरूप प्रदान करते  थे। इसका कारण भी जमीन से जुड़ा  है। यूरोप में जमीन पर कृषकों के स्थान पर सामंतों तथा पादरियों का स्वामित्व था और सामंतवाद की व्यवस्था पदसोपानात्मक थी, अर्थात्  छोटे सामंत के ऊपर बड़ा   सामंत और उससे ऊपर उससे बड़ा सामंत और सबसे ऊपर राजा और राजा से ऊपर पोप। जमीन पर काम करने वालों को सर्फ कहा जाता था जो जमीन के हिस्से माने जाते थे अर्थात जमीन से जुड़े  जन जो बंधुआ मजदूरों की तरह थे। ये सर्फ यूरोपीय आबादी में बहुसंख्यक थे। जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि धर्म सर्वसामान्य का अफीम है तो यूरोप में जिस तरह का शोषण था उसको देखते हुए इस अफीम की वहाँ  ज़्यादा जरूरत थी जिसके परिणामस्वरूप वहॉ समरूप केंद्रीकृत धार्मिक सत्ता बलवती रही । भारत में इसके विपरीत किसानों की स्वायत्त जीवन शैली, जमीन पर उनका स्वामित्व तथा उनकी बड़ी संख्या किसी एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक परम धर्माधिकारी की व्यवस्था को पनपने ही नहीं दिया। इसकी वजह से ही भारत में राज्य-धर्म की अवधारणा उत्पन्न भी नहीं हो पायी।

धर्म तथा रिलिजन का यह पक्ष डा. हिमांशु राय ने अपनी पुस्तक सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी में रखा है। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर हैं और इस तरह की कई मौलिक पुस्तकों का लेखन आपने किया है। यह पुस्तक भी धर्म, रिलिजन, राजनीति तथा उनसे जुड़ी  प्रक्रियाओं की जहाँ  एक ओर आधारभूत समझ देती है वहीं दूसरी तरफ इनसे जुड़े  अनछुए पहलुओं को उजागर करती है। उन्होंने बखूबी मार्क्सवादी उपागम का प्रयोग करते हुए यह सिद्ध किया है कि साम्यवादी व्यवस्थाएँ भले  ही असंगत थीं लेकिन अध्ययन की पद्धति के रूप में मार्क्सवाद की उपादेयता बनी हुई है। हिन्दी में इस तरह के पुस्तकों का प्रकाशन कम ही हो पाता है और इस तरह की पुस्तकों  के तर्कों  को कम-से-कम समीक्षा के माध्यम से हिन्दी पाठकों के समक्ष लाना आवश्यक है। इस पुस्तक में यह रेखांकित किया गया है कि भारतीय सभ्यता में न तो राज्यधर्म की और न ही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का बोध या व्यवहार जैसी चीज थी। यह इस तरह की धारणा अंग्रेजों ने मुस्लिम आभिजात्यवर्ग के साथ मिलकर इजाद किया जिसे बाद में भारतीय उदारवादियों ने भी स्वीकारा और वामपंथियों ने समर्थन दिया। सेक्युलरिज्म की भारतीय समझ आज भी समस्यामूलक बनी हुई है।

आजकल हमारे जनतंत्र में यह मान्यता सर्वोपरि है कि विकास तथा सामाजिक न्याय की स्थापना जातीय तथा सम्प्रदायिक समूहों को आधार बनाकर किया जा सकता है। इस तरह की नीतियों का समर्थन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी करते हैं। वास्तव में यह ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को उलटना है जो शक्तिसंघर्ष में लिप्त राजनैतिकों का चलाया कुचक्र है। उदारवाद जातीय (एथनिक) या सम्प्रदायिक अस्मिता के स्थान पर व्यष्टि आधारित समाज का निर्माण करता है। यह सभी सभ्यताओं में समान उत्पादन प्रणाली के आधार पर समरूप संस्कृति का सृजन करता है। पूँजीवादी  व्यवस्था के अंतर्गत मजदूर वर्ग भी पुरातन अस्मिता आधारित नीतियों के स्थान पर सेकुलर आर्थिक हितों को तवज्जों देता है। यह भी भूला दिया जाता है कि समान सार्वजनिक कानूनों के अंतर्गत ही अल्पसंख्यकों की सुरक्षा है क्योंकि समान कानून पहले बहुसंख्यक पर अंकुश रखता है। अगर जाति और पंथ के आधार पर कानून बनाएँ जाएँ  तो यह मध्ययुगीन विभाजित समाज से आज तक की सामाजिक प्रगति को नकारना होगा। आधुनिक समाज का आधार समुदाय के स्थान पर नागरिकता पर आधारित सार्वजनिक कानून हैं।


अस्मिता की राजनीति को बहुधा पूँजीवाद का प्रतिरोध के रूप  में देखा जाता है। वास्तव में इस तरह का विरोध पूँजीवाद की  विकास यात्रा की अपूर्णता के कारण है। पूँजीवाद की पराकाष्ठा सर्वजनीन या वैश्विक समरूप संस्कृति की स्थापना है जिसके अंतर्गत इस तरह के पुरातनपंथी अस्मिताओं का विलोप हो जाएगा। खासकर पंथ के आधार पर पूँजीवाद के विरोध  के पीछे समुदाय विशेष के आभिजात्य वर्ग के पुरुषों के द्वारा अपने विशेषाधिकारों को संरक्षित करने की मंशा होती है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि प्रगतिशीलता के आवरण में अल्पसंख्यक प्रतिक्रियावाद को भारतीय वामपंथी समर्थन दे रहे हैं। वास्तव में जैसा डा. राय स्पष्ट करते हैं कि भारतीय वामपंथ की राजनीति उनके दर्शन को निर्धारित करती है न कि उनका दर्शन उनकी राजनीति को। इसी विडम्बना ने वामपंथ को भारत में मात्र एक दबाब समूह के रूप में खड़ा कर दिया है। 

यह पुस्तक समाजशास्त्र के शिक्षकों तथा छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। हालांकि यह पुस्तक लम्बे पैराग्राफ की वजह से कई जगह बोझिल हो गयी हैं । तर्कों को साररूप में अध्यायों को अंत में दिए जाने पर यह पुस्तक छात्रों के लिए और भी उपयोगी हो सकती थी। 

सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी
हिमांशु राय
नई दिल्ली, मानक प्रकाशन, २००९, रू. ४५०/-

(बी पी एन समग्र, रविवार, १५ नवम्बर २००९, पृ. २ में इसी शीर्षक के साथ प्रकाशित)

3 टिप्‍पणियां:

  1. धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नीति (सदाचरण) को धारण करके कर्म करना एवं इनकी स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके, उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है ।
    असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । वर्तमान में न्यायपालिका भी यही कार्य करती है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म पालन में धैर्य, संयम, विवेक जैसे गुण आवश्यक है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    व्यक्ति विशेष के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर की उपासना, दान, पुण्य, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
    धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है । by- kpopsbjri

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    1. वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।

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  2. इस विस्तृत टिप्पणी के लिए साधुवाद। टिप्पणी अनाम रहने से आपके परिचय से वंचित रहने का मलाल भी है। यहाँ इस तथ्य का उल्ल्लेख करना मैं प्रासंगिक पाता हूँ कि उपनिवेशवाद और उसके पूर्व बाह्य आक्रान्ताओं की दासता के कारण हमारी मानवीयता से परिपूर्ण अमूल्य ज्ञानराशि अपनी प्रतिष्ठा खो बैठी। यह समय ज्ञान के उस वैभव को प्राप्त करने और सृजन में सिरमौर बनने का है। आपने मेरे ब्लॉग पर अपनी मेधा का जो संकेत आभास दिया है, उसके लिए पुनः धन्यवाद।

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