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गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

भारती का भविष्य (भाग १)


भारती से यहॉ आशय हिन्दी भाषा से है। इस भाषा को व्यापक बनाने तथा राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाने के लिये भारती नाम का प्रयोग ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट सन्देश जाता है कि भारती भारत की भाषा है। हिन्दी नाम से कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग इस भाषा को धार्मिक मतावलम्बन या क्षेत्रीयता के संदर्भ में देखते है । भारती नाम ऐसे निराधार धारणाओं को दूर करने में सहायक हो सकता है। इस नाम से इसके व्यापकीकरण तथा इसे भारत के सम्पर्क भाषा के रूप में प्रभावी तौर से स्थापित करने में भी काफी सहायता मिल सकती है । गॉधीजी समेत अनेक नेताओं ने अपेक्षा की थी कि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की अभिव्यक्तियों को अंगीकार कर समग्र भारत में बोधगम्य होगी तथा यह भारत की राजभाषा मात्र न रहकर भारत की एकता तथा राष्ट्रीयता की भाषा हो सकेगी। भारती नाम इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी सकारात्मक होगा। वैसे भी, संस्कृत, जो विश्व की महानतम तथा ऐतिहासिक भाषाओं में से एक है, के मूल की अग्रणी भाषा हिन्दी, जो भारतीय राष्ट्रवाद की आकांक्षाओं का भी प्रतीक है, के लिये प्रयुक्त संज्ञा तत्सम/देशज ही होनी चाहिए। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस आलेख में, जिसमें इस भाषा के वर्तमान के अधार पर इसके भविष्य को लेकर कुछेक अप्रिय सम्भानाओं पर चिंताएँ प्रगट की गयी हैं तथा उन चिंताओं के निवारण हेतु कुछेक विचार भी प्रस्तावित किये गये हैं, हिन्दी के लिये भारती शब्द का ही प्रयोग यथासम्भव किया गया है।

भाषा की स्थिति का समकालीन सन्दर्भ

विश्व पटल पर भारत की प्रभावशाली पहचान है तथा भारत का उज्ज्वल भविष्य, सम्पन्न तथा शक्तिशाली देश के रूप में, स्वप्न नहीं वरन् उपलब्धनीय सत्य प्रतीत हो रहा है। लेकिन इस सत्य का भयावह नकारात्मक पहलू भी है। इस सत्य का मूल्य सम्भवतः भारत की अस्मिता है तथा निश्चित रूप से इसकी अस्मिता की प्रतिष्ठा है। पूरे विश्व को एक समष्टि के रूप में लें तो इसकी अपनी आर्थिक व राजनीतिक संरचनाएँ हैं जो अपने निर्माणकों से काफी हद तक स्वतंत्र हैं। लेकिन इसकी संस्कृति सर्वाधिक शक्तिशाली सदस्यों की संस्कृति से ज्यादा भिन्न नहीं है। ऐसा होना स्वाभविक है। हालॉकि भारत इस संस्कृति एवं व्यवस्था का अंग है लेकिन उसमें इसकी हिस्सेदारी मामूली है। भारत इस व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है तथा वैश्विक संस्कृति पर इसके प्रभाव का भी अनुभव किया जा सकता है लेकिन वह प्रभाव गौण है। भारत इस व्यवस्था में समाहित होने का प्रयास कर रहा है लेकिन वह इसका निर्माणक नहीं है। 

विश्व व्यवस्था में भारत का समकालीन उद्भव भी भ्रामक है। इसमें काफी हद तक विदेशी पूँजी का हाथ है, खासकर व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यसाधन (बी.पी.ओ.) का जिसकी वजह से भारत विश्व पूँजीव्यवस्था का फ्श्च-कार्यालय बनने का स्वप्न देख रहा है। वास्तव में भारत भूमि विश्व पूँजी व्यवस्था की कार्य-स्थली बन रही है जिसमें भारतीय अभ्यर्थी, श्रमिक, क्षुद्रसेवी, लिपिक तथा आश्रित उपोद्यमियों की भूमिका निभाने जा रहे हैं। भारत की अति दरिद्रता के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की उन्नति भी तोष का विषय हो सकता है लेकिन मान का नहीं । 

- नीरज कुमार झा 

(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

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