भाषा की उन्नति की अभीष्टता
सर्वप्रथम अँगरेज़ी भाषा के महत्ता को बताने के लिये जिस आर्थिक विकास की दुहाई दी जाती है उसी पर विचार करना आवश्यक है। आर्थिक दृष्टिकोण से तो वैसे पूरा भारत ही पिछड़ा है लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति और भी दयनीय है। उत्तर तथा पूर्व भारत का विशाल हिन्दी भाषी क्षेत्र विश्व की आबादी के प्रायः निकृष्टतम जीवनस्तर वाले लोगों का है। इस क्षेत्र को बिमारू क्षेत्र भी कहा जाता है। बिमारू शब्द बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के प्रथम अक्षरों से बना एक्रोनिम है। इसे काउबेल्ट, गोबरपट्टी, तथा हिन्दी हिंटरलैंड आदि नामों से भी जाना जाता है। कहने का अर्थ यह है कि यह क्षेत्र पिछड़ेपन का पर्याय बन चुका है। कारणों का विश्लेषण यहॉ नहीं किया जा सकता है लेकिन ऐसे लोगों की भाषा ही यदि उपादेयता न रखती हो तो इनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का महत्व वैसे ही कम हो जाता है। शिक्षा यदि गरीबी का एक उपचार है तो हिन्दी माध्यम में शिक्षित जन कम प्रभावशाली उपचार पा रहे हैं क्योंकि रोजगार तथा व्यवसाय के अधिकांश क्षेत्र उनके लिये प्रतिबंधित हैं तथा देश के उच्चतर स्थानों तक पहुँचने से वे हमेशा के लिये वंचित हैं। अँगरेज़ी का वर्चस्व उनकी नागरिकता के आधार समानता के सिद्धांत पर भी चोट करता है। यह उनके सम्मान पर आघात तथा उनके जीवन अवसरों को बाधित कर रहा है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र के वासियों के विकास के लिये आवश्यक है कि देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र में कम से कम भारती की प्रधानता स्थापित हो। समाज के पिछड़े तबको के लिए तो यह और भी आवश्यक है। उनकी कई पीढीयाँ समुचित शिक्षा के अवसरों के अभाव में अँगरेज़ी में दक्षता प्राप्त करने में गुजर जायेंगी। हिन्दी का विकास देश के बड़े हिस्से के आर्थिक विकास के लिये ही नहीं वरन् सामाजिक न्याय के लिये भी अनिवार्य है। भाषा का विकास आर्थिक विकास की दो पद्धतियों - लोकोन्मुखी तथा वृद्धिकेंद्रित - में से प्रथम के लिये भी आवश्यक है। वास्तव में हिन्दी क्षेत्र में किसी तरह का व्यवसाय या रोजगार करने के लिये हिन्दी पर्याप्त ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है। कोई भी व्यवसाय या सेवा इस क्षेत्र में बिना हिन्दी के ज्ञान के सम्भव ही नहीं है। मात्र यहॉ अँगरेज़ी का हौआ बनाया गया है ताकि अभिजन अपना प्रभुत्व बनाए रख सके। संक्षेप में उपर्युक्त विवरण का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि हिन्दी भाषी लोगों के आर्थिक विकास तथा सम्मान के लिये आवश्यक है कि हिन्दी की उपादेयता तथा सम्मान को सशक्त किया जाय। इसके लिये मात्र अँगरेज़ी के मायाजाल को तोड़ने की आवश्यकता है। अँगरेज़ी सीखना जरूरी है तो सिर्फ एक हुनर के रूप में।
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)