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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ७)

हिन्दी भाषियों के आर्थिक विकास से हिन्दी का विकास तथा हिन्दी के विकास से उनका आर्थिक विकास तो जुड़ा है ही लेकिन भाषा का प्रश्न जीवन के अन्य क्षेत्रों से भी असम्पृक्त नहीं है। इसका स्पष्ट संबंध राजनीति की प्रकृति में सुधार तथा संस्कृति के परिष्कार से है। भारत के हिन्दी क्षेत्र का पराभव प्रधानतया इस क्षेत्र की निम्न स्तरीय राजनीति के कारण है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्वस्थ तथा गतिशील सामाजिक व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि समाज विज्ञानों में उपलब्ध ज्ञान जनता तक प्रेषित हो, जो हो नहीं रहा है। कारण है वही कि भारती साहित्य की भाषा तो है लेकिन समाज विज्ञानों की नहीं। समाज संबंधी चिंतन तथा स्थापनाएँ  अभी भी भारत में आयातित ही हैं; उनमें मौलिकता का अभाव है। वे लोक जीवन से जुड़े नहीं हैं यदि जुड़े भी हैं तो समाजविज्ञान भारतीय परिदृश्य में हाशिये पर हैं। कारण है कि समाज विज्ञानियों ने अँगरेज़ी भाषा  को अपने अध्ययन, शोध तथा ज्ञान विस्तार का माध्यम बना रखा है जिस कारण से वे आम जनता तक पहुँच नहीं पाते हैं। सामाजिक चिंतन तथा ज्ञान जनतांत्रिक आधार के अभाव में प्रभावहीन रह जाते हैं। दूसरी तरफ जनता उच्चतर चेतना के अभाव में पिछड़ी तथा दमित रह जाती है। दूसरे शब्दों में ज्ञान जनसमर्थन के अभाव में प्रभावहीन रहता है तथा जन ज्ञान के अभाव में निःशक्त। साहित्य की बात लें तो हिन्दी साहित्य की स्थिति की समस्या गुणवत्ता की कम तथा प्रसार की ज्यादा है। प्रसार सामान्य जन में निरक्षरता, अशिक्षा, निर्धनता तथा निम्न जीवन स्तर के कारण बाधित है। प्रसार के अभाव में अच्छा साहित्य पनप भी नहीं पाता है। लोकग्राह्यता के अभाव के कारण प्रकाशक सरकारी खरीदी पर निर्भर करते हैं जिसके कारण साहित्य का प्रसार नहीं वरन्‌ भ्रष्टाचार का विस्तार होता है तथा लेखक प्रकाशक का मुहताज रहता है। ऐसे कुंठित साहित्यकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है? साहित्य है क्योंकि इतनी बड़ी  आबादी से सृजन का विलोप हो ही नहीं सकता है। फ़िर भी समाज विज्ञानियों की अपेक्षा हिन्दी साहित्यकारों की  समाज में ज़्यादा  प्रतिष्ठा तथा प्रभाव है क्योंकि वे ज़्यादा लोगों के लिये सुलभ हैं।

- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

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