दूसरा पहलू जो समाज विज्ञानों से ही संबंध रखता है वह है मानव अधिकारों की उपलब्धता का। हिन्दी भाषियों के जीवन स्तर को सुधारने के लिये मानव अधिकारों की सुनिश्चितता भी आवश्यक है। यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित मानवाधिकार आर्थिक विकास, सांस्कृतिक उन्नति तथा जनतंत्र के सबलीकरण के आधार हैं। भारतीय जनतंत्र के शरीर को सबल तथा स्वस्थ बनाने के लिये अधिकारों की उपलब्धता के व्यापक विस्तार की आवश्यकता है। सत्ता इस दिशा में मंथर गति से चलती है और वह भी पीछे से धकेलने पर। वास्तव में सत्तासीनों के अपने हित होते हैं जो जनता के हितों से सामान्यतः विपरीत ही होते हैं। आवश्यकता होती है जनजागृति की। सजग जन अपने अधिकारों को माँगे तथा हासिल करें, यही मार्ग है सशक्तीकरण का - व्यक्तियों तथा समाज का। इसके लिये भी आवश्यक है भाषा के उपादेयता के विस्तार की। मानव अधिकार आन्दोलन तब तक सफल नहीं होगा, जब तक इस विषय के साहित्य, शोध तथा सिद्धांत जनता के बीच उनकी भाषा में प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं।
इस तरह से भाषा का महत्व भावनात्मक के अलावा सांस्कृतिक, आर्थिक या राजनीतिक भी है। इन तथ्यों पर विचार के उपरांत भाषा का महत्व राष्ट्रशक्ति के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में भी विचारणीय है। इस दृष्टिकोण से भाषा का महत्व अंतर्राष्ट्रीय है। आज राष्ट्रशक्ति में मृदु शक्ति की महत्ता बढ़ रही है। सैन्य तथा अर्थ बल के अलावा शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन तथा राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति के प्रमुख तत्वों में गण्य हैं। शक्ति के ऐसे तत्व मृदुशक्ति के रूप में जाने जाते हैं। ऐसे में भाषा की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति का प्रमुख तत्व हो सकता है। फ्रांस, जर्मनी तथा रूस की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का एक अवयव उनकी भाषाएँ भी हैं। अँगरेज़ी आंग्लभाषी देशों की शक्ति को परिलक्षित ही नहीं वरन् पुष्ट भी करती है। राष्ट्रशक्ति के विस्तार के लिये भी राष्ट्रभाषा का अंतर्राष्ट्रीय जगत में सम्मान भी महत्वपूर्ण है।
जहॉ तक तार्किकता की बात है भाषा का उस दृष्टिकोण से तो महत्व है ही लेकिन इसका सीधा संबंध भावना से है। भाषा राष्ट्रीयता, संस्कृति तथा संस्कारों के केंद्र में है। वास्तव में भावना का अपना तर्क है, जो तर्कों में सर्वोपरि है। सवाल यह उठता है कि क्या पराश्रित उन्नति सच्ची उन्नति है? क्या सम्पन्नता अस्मिता के मूल्य पर अभीष्ट है? क्या सांस्कृतिक स्वायत्तता खोकर राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ रह जाता है? ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जहॉ भावना ही अंतिम तर्क है। इस मुद्दे पर तर्कों का मूल यही है कि भाषा का प्रश्न सभी तर्कों से परे है।
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश
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