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रविवार, 14 अगस्त 2011

जिसे नहीं गवारा मेरा गुलाम होना

गुलाम मैं भी हूँ 
गुलाम तुम भी हो
मजे में हो तुम
लेकिन मैं हूँ बेचैन 
जिसका तुम्हें भान भी नहीं
उसके मारे मैं हूँ परेशान 
ऐसा क्यों है
शायद तुम पड़े हो जन्म से ही 
ऐसी कालकोठरी  में 
जिसमें कोई रोशनदान भी नहीं
मैं जहाँ हूँ नज़रबंद 
वहाँ खुली खिड़कियाँ तो हैं ही सही 
रोशनी तो कभी न कभी तुमने भी देखी होगी
लेकिन तुमने झूठला दिया होगा देखे का
बहला लिया होगा अपने-आप को 
समझ कर उसे छलावा 
दिमाग पर जोर डालना 
शायद नहीं  तुम्हारी फितरत 
लेकिन मेरे मन का एक कोना है
जिसे नहीं गवारा 
मेरा गुलाम होना

- नीरज कुमार झा 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जन-जन संप्रभु

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यह जनतंत्र है
यहाँ कोई राजा नहीं है 
कोई प्रजा भी नहीं
हम सभी नागरिक हैं
और तय है कि
हम चुनते हैं अपने प्रतिनिधि
स्वामी नहीं
उचित तो यह भी नहीं कि 
कहा जाए किसी को शासक या प्रशासक 
जीविका चलती उनकी 
हमारे अंशदान से 
मात्र  हैं  वे प्रबंधक 
हमारे सामूहिक हितों के 
यह जनतंत्र है
और हर जन संप्रभु है
बंदिशें हैं और रहें 
लेकिन सिर्फ इसलिए कि
हमारी अनधीनता नहीं बदले अराजकता में
बंदिशों का है लक्ष्य मात्र एक
कि हो हमारी स्वतंत्रता अधिकतम 
और प्रतिबंध रहे हम पर कम से कम
हर जन है बड़ा 
तंत्र के किसी भी अंग
या उसके किसी कर्मी से
याद रहे हमेशा कि
यह जनतंत्र है
और जन-जन संप्रभु है
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नीरज कुमार झा
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मालिक मेरे कुत्ताजी

चोरी की बढ़ती वारदातों को लेकर मैं परेशान था
दोस्तों ने सलाह दी 
मैंने एक कुत्ता पाल लिया 
शुरू में उसने कुछ संदेहास्पद लोगों को देखकर तेवर दिखाए 
लेकिन यह कुछ ही दिन चला
अब वह सारे रूआब मुझ पर ही झाड़ता है 
वह मेरे बिछावन पर लेटता है 
मेरी कुर्सी  पर बैठता है
म्रेरे भोजन का बड़ा हिस्सा 
मुझसे पहले डकार जाता है
और मैं यदि विरोध करूँ  तो 
मुझ पर गुर्राता है 
मैं एक दिन पूछ ही बैठा 
मालिक तू है या मैं 
कुत्ते ने कहा 
मैं हूँ मालिक 
मैं हैरत में पड़ गया 
वह कैसे 
तू काम करता है 
हाँ 
मैं काम करता हूँ 
नहीं 
कौन मालिक हुआ 
तुम 
मेरा नाम सम्मान से ले 
क्या कहूँ आपको 
मालिक मेरे कुत्ताजी 
ठीक है मालिक मेरे कुत्ताजी
मैं उसके तगड़े जबड़ो से झांकते 
मजबूत दांतों को देखकर सहम गया था
खाना तो आप मेरा दिया खाते हैं 
यह तेरा भ्रम है 
कैसे 
मैं पहले खाता हूँ 
हाँ 
तू मेरा छोड़ा खाता है 
हाँ 
फिर बता कौन किसको खिलाता है 
आप मुझे खिलाते  हो 
लेकिन काम तो मैं अपना करता  हूँ 
यह भी तेरा भ्रम है 
काम भी तू मेरी वजह से कर पाता है 
वह कैसे 
मैं सुबह-सुबह तुझ पर भूँकता हूँ 
तभी तो तू काम पर जाता है 
और काम कर पाता है 
हाँ मालिक मेरे कुत्ता जी 
मेरे पास कोई चारा नहीं था 
कुछ दिनों के बाद तो उसने अति कर दी 
उसने सर पर चमकने वाला सीसा बाँध लिया 
और चलते वक्त सीटी बजाने लगा 
अब यह क्या है 
समझा नहीं 
सिटी जैसे मैं बजाऊँ तू जहाँ  का तहाँ  खड़ा हो जा 
संडास भी जा रहा तो बिलकुल ठहर जा 
कुछ भी करूँगा तो मैं पहले करूँगा  
जब तक मैं कुछ करूँगा
तू कुछ नहीं करेगा और चुपचाप रहेगा 
मेरी अक्ल अब ठिकाने लग चुकी थी 
मालिक मेरे कुत्ताजी 
कहकर मैंने सलाम बजाया 
शाबाश 
शाबाशी पा 
सच कहूँ मुझे अच्छा लगा 
मजे से मैं 
घर के कोने में उसका  जूठन खाने बैठ गया

- नीरज कुमार झा 





गुरुवार, 4 अगस्त 2011

रिश्ते कुछ ही चलते जन्म भर

मैं रोया हूँ कई बार
टूटे रिश्तों को लेकर
हुआ हूँ रूआंसा कई बार
भांप कर
टूट जाने वाले रिश्तों को लेकर
पहले पता नहीं था
रिश्ता चाहे कैसा भी हो
रक्त या सम्बन्ध का
दोस्ती का या पेशे का
रिश्तों की जमीन होती है
जो हो जाती है बंजर अधिकतर
एक समय के बाद
और सूख जाते हैं रिश्तें
कुछ समय के बाद
रिश्तों की उम्र होती है
रिश्ते कुछ ही चलते हैं जीवन भर
हर रिश्तों को सहेजना नहीं होता है संभव
हर एक के लिए


- नीरज कुमार झा