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मंगलवार, 28 जून 2022

शाश्वत सत्य

शाश्वत सत्य वह है, जो हर प्रकट में स्थित होते हुए भी स्थल और काल की सीमाओं से परे है। यह हर प्रकट तत्व में है क्योंकि जो भी है वह कभी निर्मित नहीं हुआ है और साथ ही अविनाशी है। इनके परे अप्रकट भी इसमें समाहित है। सीमित की असीमितता और असीम विस्तार की प्रतीति कल्पनागत होती है लेकिन इसका स्वरूप कल्पनातीत है। इस सर्वपूर्ण अथवा सम्पूर्ण (ऐब्सलूट) की प्रतीति सहजबोध है लेकिन इसका कोई प्रकट रूप नहीं  है। 

नीरज कुमार झा

रविवार, 26 जून 2022

Democracy

Democracy is the antithesis of absolutism. And, therefore democracy itself cannot be about perfection. Democracy though refines the conduct of practitioners, but it primarily reflects the people who practise it. For a better democracy, the people need to be more discerning in approach and dignified in conduct. The fact is that democracy is not a state of nature; it is an achieved state of civility. The people conscious of their individualities only graduate to the order of democracy. The collectivised ways of living, owning or minding only dilute and deny people's democratic potential.

Niraj Kumar Jha

शनिवार, 25 जून 2022

सोमवार, 20 जून 2022

फ्यूडलिज़म अथवा ढोरवाद

फ्यूडलिज़म शब्द की व्युत्पति के अनुसार इस शब्द का भारती में समानार्थक शब्द ढोरवाद बनता है। फ्यूडलिज़म के समांतर सामंतवाद शब्द का प्रयोग दोषपूर्ण है, क्योंकि दोनों ही व्यवस्थाएँ सर्वथा भिन्न थीं। पाश्चात्य जगत में ढोरवाद के काल को उनके इतिहास का मध्यकाल कहा गया है। ये अलग तथ्य है कि उन्होंने अपने इतिहास के कालविभाजन को विश्व की तमाम सभ्यताओं पर आरोपित कर दिया। अब पाश्चात्य जगत में आधुनिक युग की त्रासदी की बात करते हैं। पाश्चात्य जगत में भले ही आधुनिक युग ढोरवादी काल के बाद आया लेकिन ढोरवाद समूहवादी वैचारिकी के छद्मावरण में इस काल में भी बना रहा और शेष दुनियाँ में प्रसारित होता रहा। आधुनिकता मानवतावाद का युग है। इस व्यवस्था के केंद्र में व्यक्ति होता है लेकिन इस कालखंड में भी व्यक्तिवाद को नकारती समूहवादी विचारधाराएँ पाश्चात्य जगत में उत्पन्न होती रही, जो यूरोप और दुनियाँ के अन्य भागों में मानव जीवन की मानव सृजित त्रासदियों का प्रधान कारक रही हैं।

नीरज कुमार झा




शनिवार, 18 जून 2022

देशहित

    समझने और समझाने की बात है कि हमारा व्यक्तिगत हित और सामूहिक हित अन्योन्याश्रित है। प्रत्येक का सापेक्षिक हित देश और समाज की स्थिति पर निर्भर करता है। इसलिए प्रत्येक यह समझे कि उसका देश और समाज के हित में सोचना और कार्य करना उसके स्वयं के लिए आवश्यक है। कोई भी स्वयं कंटक बन कंटकों की संख्या बढ़ाता है, अन्य कंटकों को मजबूत करता है; और काँटों की बहुतायत सभी के जीवन को संकटपूर्ण बना देती है। जरूरत है कंटकों को दूर करने की; जो लोगों की सही समझ, सकारात्मक सोच, और रचनात्मक योगदान से ही संभव है। जनतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत रहने वाले जन निरीह नहीं हो सकते हैं। प्रत्येक नागरिक अपने आचरण और चयन में दिमाग का इस्तेमाल करे और उसके परिणामों के विषय में सोचे। लोगों की छोटी-छोटी बातों का व्यापक असर होता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम प्रत्येक के व्यक्तित्व के योग से ही समाज का स्वरूप और चरित्र निर्मित होता है। प्रत्येक का निरंतर प्रयास होना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व गंभीर और आचरण गरिमामय हो। यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई कैसा है; महत्वपूर्ण यह है कि वह अपनी प्रवृत्ति को लेकर सजग है। आदमी बहुत हद तक परिस्थितियों का दास होता है और उसके हाथ में ज्यादा कुछ नहीं होता है। लेकिन किसी भी परिस्थिति में किसी का निराश और उदासीन होना उसके द्वारा संकट को बढ़ाना है, क्योंकि ऐसी मनोदशा के व्यापक होने से परिस्थितियाँ और खराब हो जाती हैं। यथासाध्य सकारात्मक प्रयास करते रहना ही उचित है। प्रत्येक यथासंभव अपने दायित्वों का पालन करे, अधिकारों का समुचित उपयोग करे, और जनतांत्रिक साधनों का प्रयोग करे; यह उसके स्वयं, स्वजनों, और समाज के हित में है।

नीरज कुमार झा

गुरुवार, 16 जून 2022

Neoliberalism

Liberalism, let me reiterate, is not an ideology. It is an ecology created by the secular play of human faculty and agency. The great theorists who dwelt on the liberal ideas and institutions were mostly articulating what was already happening. This is to say that liberalism is a phenomenon unfolding without the help of any doctrine. It is the manifestation of the common human drive for property and autonomy. In other words, men and women in their pursuit of dignity and happiness create the ecology of liberalism. Neoliberalism was its phase when it corrected itself from its welfarist drift. But, the lordships and their devotees prevailed and the world is again under their glorious spell.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 15 जून 2022

शनिवार, 11 जून 2022

दृष्टिदोष

नेत्रों के दोषपूर्ण होने से वस्तुएँ मूल की तुलना में अस्पष्ट और लघु दिखती हैं, या नहीं दिखती हैं। मन की आँखों के दोषपूर्ण होने पर वस्तुएँ मूल की तुलना में अधिक स्पष्ट और विशाल दिखती हैं, और वे वस्तुएँ भी दिखती हैं, जो वहाँ नहीं हैं। इस दृष्टिदोष की व्यापकता ही प्राकृतिक समस्याओं के यथासंभव निदान में सबसे बड़ी बाधा और कृत्रिम समस्याओं का प्रधान कारक है। वस्तुओं को वैसे ही देख पाना जैसे वे हैं, के लिए नेत्रों का निर्दोष होना आवश्यक है। शरीर की आँखों की तरह मन की आँखों का नियमित परीक्षण भी आवश्यक है, जिसे व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है।

नीरज कुमार झा