नेत्रों के दोषपूर्ण होने से वस्तुएँ मूल की तुलना में अस्पष्ट और लघु दिखती हैं, या नहीं दिखती हैं। मन की आँखों के दोषपूर्ण होने पर वस्तुएँ मूल की तुलना में अधिक स्पष्ट और विशाल दिखती हैं, और वे वस्तुएँ भी दिखती हैं, जो वहाँ नहीं हैं। इस दृष्टिदोष की व्यापकता ही प्राकृतिक समस्याओं के यथासंभव निदान में सबसे बड़ी बाधा और कृत्रिम समस्याओं का प्रधान कारक है। वस्तुओं को वैसे ही देख पाना जैसे वे हैं, के लिए नेत्रों का निर्दोष होना आवश्यक है। शरीर की आँखों की तरह मन की आँखों का नियमित परीक्षण भी आवश्यक है, जिसे व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है।
नीरज कुमार झा
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