शाश्वत सत्य वह है, जो हर प्रकट में स्थित होते हुए भी स्थल और काल की सीमाओं से परे है। यह हर प्रकट तत्व में है क्योंकि जो भी है वह कभी निर्मित नहीं हुआ है और साथ ही अविनाशी है। इनके परे अप्रकट भी इसमें समाहित है। सीमित की असीमितता और असीम विस्तार की प्रतीति कल्पनागत होती है लेकिन इसका स्वरूप कल्पनातीत है। इस सर्वपूर्ण अथवा सम्पूर्ण (ऐब्सलूट) की प्रतीति सहजबोध है लेकिन इसका कोई प्रकट रूप नहीं है।
नीरज कुमार झा
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